ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह का हसबो नसब और शजरा-ए-तैय्यबा हज़रत इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से होता हुआ इमाम अली मुर्तज़ा अलैहिस्सलाम से जा कर मिलता है
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सैय्यद अब्बास मेहदी रिज़वी: अता-ए-मुस्तफ़ा, दिलबरे मुर्तज़ा, ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान, सुल्तान-उल-हिंद हज़रत ख़्वाज़ा ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह के सालाना उर्स का आग़ाज़ हो चुका है। माहे रजब का चांद नज़र आते ही ग़रीब नवाज़ के अजमरे में वाक़े आस्ताने पर रुहानियत के बेमिस्ल मनाज़िर देखने को मिले। अक़ीदतमंदों ने रिवायती अंदाज़ में एक दूसरे को गले लगाकर मुबारकबाद दी। ग़रीब नवाज़ के उर्स के मौक़े पर बड़ी तादाद में अक़ीदतमंद दरगाह शरीफ़ पर हाज़री देते हैं। हर साल जब जमादुस्सानी का दिन ग़ुरुब हो रहा होता है और आसमान पर चांद का इंतेज़ार रहता है उसी वक़्त वक़्त मज़ार शरीफ़ में रौशनी होती है। कहा जाता है कि रौशनी के वक़्त ग़रीब नवाज़ के मज़ार शरीफ़ के गुंबद की जानिब रुख़ करके दामने मुराद फैलाने से दुआए क़ुबूल होती हैं। हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह वो अज़ीम बुज़ुर्ग हैं जिनको अल्लाह ने मख़ूसूस अताए दी हैं। इनके दर पर लोगों की मुरादें पूरी होती हैं। मांगने वालों की आखों में नमी आती है,और इधर इनका दिल पसीजता है,और फिर अल्लाह के दर से अताओ के बाब खुल जाते हैं।
गरीब नवाज़ का हसव-व-नसब
ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह का हसबो नसब और शजरा-ए-तैय्यबा हज़रत इमामे मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से होता हुआ इमाम अली मुर्तज़ा अलैहिस्सलाम से जा कर मिलता है। वालिद की तरफ़ से आप का सिलसिल-ए-नस्ब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से होता हुआ इमाम अली अलैहिस्सलाम से मिलता है जबकि वालिदा का शजरा इमामे हसन अलैहिस्सलाम से मिलता है। वालिद का नाम सैय्यद ग़्यासुद्दीन और वालिदा का नाम उम्मुल वरा है।
ग़रीब नवाज़ की विलादत और इब्तेदाई ज़िदंगी
रजब के महीनें में 530 हिजरी ब मुताबिक़ 1135 ईसवी को ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह की विलादत ईरान के ख़ुरासान के संजर शहर में हुई थी। 545 हिजरी ब मुताबिक़ 1150 ईस्वी में ग़रीब नवाज़ के सर से बाप का साया उठ गया। इस वक़्त ग़रीब नवाज़ की उम्र सिर्फ़ 15 साल थी। नन्ही सी उम्र में ग़रीब नवाज़ नें दाग़े मफ़ारेक़त उठाया,यतीमी का दाग़ दिल से मिटा भी नही था कि शफ़ीक़ मां का साया भी सर से उठ गया। छोटी सी उम्र में मुसीबतों के दो पहाड़ टूटने से ख़्वाज़ा ग़रीब नवाज़ बहुत ग़मगीन हुए,लेकिन ऐसे हालात में भी सब्रो ज़ब्त और इस्तेक़लाल का दामन ग़रीब नवाज़ नें नही छोड़ा।
ग़रीब नवाज़ ने छोटी उम्र में बड़ी ज़िम्मेदारियां संभाली
जल्द ही वालिदे माजिद का कारोबार निहायत की होशियारी के साथ संभाल लिया। मरहूम बाप की पनचक्की और उनके बाग़ की देखभाल आप को करनी पड़ी।ग़रीब नवाज़ दिन भर टहनियों को काटते छाटते, दरख़्तो को पानी देते और नए पौधे लगानें में मशग़ूल रहते।इसी काश्तकारी से होने वाली आमदनी से आप का घर चलता। बाग़ के अलावा आप की पन चक्की भी चलती थी।जिससे शहर वाले अपना आटा पिसवाया करते थे।
ग़रीब नवाज़ की ज़िंदगी का वो वाक़्या जिससे सबकुछ बदल गया
एक रोज़ ग़रीब नवाज़ अपने बाग़ात में मशग़ूल थे कि एक महज़ूब जिनका नाम इब्राहीम क़न्दोज़ी था आप के बाग़ में आ पहुंचे। महज़ूब को बाग़ में देख कर ग़रीब नवाज़ नें उन्हे हाथो हाथ लिया। दरख़्त के साए में चादर बिछा कर उनको बिठाया। फिर अपने बाग़ के कुछ फल इब्राहीम क़दोज़ी की ख़िदमत में पेश किया। इस दौरान महज़ूब नें कुछ फल खाए और अपने कशकोल से रोटी का टुकला निकला कर चबाया और ख़्वाजा को खिला दिया। थोड़ी देर बाद महजूब तो चले गए। लेकिन रोटी के उस टुकड़े नें ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की ज़िंदगी ही बदल दी। ग़रीब नवाज़ के दिल में तभी से ख़्याल आया कि दुनिया के सारे काम छोड़ कर ख़ुदा की याद और तलाश में ज़िंदगी बसर करनी चाहिए।नइसी ख़्याल में आप नें बाग़ और पनचक्की को फ़रोख़्त कर दिया और राहे ख़ुदा की तरफ़ निकल पड़े. बाग़ और पनचक्की से मिलने वाली क़ीमत से कुछ अपने सफ़र के एख़राजात के लिए रख लिया और कुछ ग़ुरबा और मसाकीन में तक़सीम कर दिया।
हुसूल-ए-इल्म-व-इश्क़ में वतन तर्क किया
उन दिनों समरक़द इल्मों अदब का मरकज़ हुआ करता था। आप हुसूले इल्म के लिए वहां पहुंचे। समरक़द पहुंच कर सबसे पहले आप नें क़ुरान शरीफ़ हिफ़्ज़ किया। क़ुरान के बाद हदीसों फ़िक़्ह की तालीमात अपने सीनें में आप नें आरस्ता की। जवानी का ज़माना बड़ा ही उमंगों और वलवलों का ज़माना होता है और इंसान जवानी के नशें में ज़िदंगी फ़िज़ूल बर्बाद करता है। लेकिन ख़्वाज़ा ग़रीब नवाज़ नें वालिद और वालिदा के इंतेक़ाल के बाद से 35 बरस की उम्र तक इल्मी मशग़ले के सिवा कोई दूसरा काम नही था।
तहसील-ए-इल्म के बाद बग़दाद का सफ़र
इल्म हासिल करने के बाद आप के अंदर हक़ की तलाश का वलवला पैदा हुआ। हक़ की तलाश में आप लंबी मसाफ़ते तय करते हुए बग़दाद पहुंचे। बग़दाद में उस वक़्त ईरान के नेशापुर के बुज़ुर्ग ख़्वाजा उस्माने हारुनी के तसव्वुफ़ का चर्चा था।आप ख़्वाजा उस्माने हारुनी की ख़िदमत में पहुंचे और उनके मुरीद हो गए। मुरीद होने के बाद ख़्वाज़ा ग़रीब नवाज़ अपने पीरो मुर्शद की ख़िदमत और हुक्म की तामीलो तकमील से दमभर भी ग़ाफ़िल नही हुए और रात दिन पीर के सामने कमरबस्ता रहते थे। बीस साल की ख़िदमत के बाद ग़रीब नवाज़ के मक़सद की तकमील हो गई, यहां तक की पीर के ज़बान से ये ख़ुशख़बरी भी सुन ली की मोईनुद्दीन तुमारा काम मुकम्मल हो गया और ख़िलाफ़त का हुक्मनामा भी तहरीर फ़रमाया। ख़िलाफ़त अता फ़रमा का पीरो मुर्शद नें तमाम नसीहतें देकर ग़रीब नवाज़ को रुख़्सत कर दिया और ख़ुद गोशानशींन हो गए।
ग़रीब नवाज़ का मक्का और मदीना का सफ़र और हिंदुस्तान आमद
पीरो मुर्शिद से रुख़्सत हो कर ख़्वाजा मक्का-ए-मुकर्रमा और मदीना-ए-मुनव्वरा के सफ़र पर रवाना हो गए। मक्कें में रहकर बेशुमार सादते और नेमते अपने दामन में समेट कर आप नें मदीना का सफ़र किया। मक्के से मदीना तक के सफ़र के दौरान आप नें बहुत सी मज़ारात की ज़ियारात भी की। मदीनें में एक रोज़ आप नें ख़्वाब में रसूलअल्लाह की ज़ियारत कीष आप नें देखा कि सरवरे कायनात हुक्म दे रहे हैं कि ऐ मोईन तुम मेरे दीन के मोईन हो यानी मददरगार हो। तुम हिंदुस्तान जाओ और मेरे दीने इस्लाम की तब्लीग़ करो बस आप नें हुक्मे पैग़ाबरे आज़म के मुताबिक़ मदीनें की चौखट चूमी और हिंदुस्तान के सफ़र पर रवाना हो गए। हिंदुस्तान में आप ने राजस्थान के रेगिस्तान को चुना और अजमेर में जहां आप का मज़ार है वहीं मुस्तक़िल क़याम किया और वहीं से रह कर हुज़ूर ग़रीब नवाज़ ने दीन व शरीयत को वो शम्मा रौशन की जिसने पूरे ख़ित्ते को पुरनूर कर दिया।
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