क्या 'मेरी क्रिसमस' कहने से ईमान से ख़ारिज हो जाता है एक मुसलमान ?
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क्या 'मेरी क्रिसमस' कहने से ईमान से ख़ारिज हो जाता है एक मुसलमान ?

Christmas in Islam: कई मुस्लिम मौलानाओं ने मेरी क्रिसमस कहने को गलत करार दिया है. इसको लेकर भारत पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों में हर 25 दिसंबर के आसपास कुछ ऐसी तस्वीरें, दलीले शेयर की जाती है, जिसमें मुसलमानों को क्रिसमस मनाने या उसकी मुबारकबाद देने से मना किया जाता है. आइयें जानते है मुसलमानों के लिए "मेरी क्रिसमस" कहना सही है या गलत है ?  

क्या 'मेरी क्रिसमस' कहने से ईमान से ख़ारिज हो जाता है एक मुसलमान ?

Christmas in Islam: ईसा मसीह और बाइबिल को क्रिस्चन धर्म के साथ ही इस्लाम के धर्म के अनुयायी भी मानते हैं. हालांकि, इन दोनों के मानने में ये बड़ा फर्क है कि क्रिस्चन जहां ईसा मसीह को अपना खुदा मानते हैं वहीं, मुसलमान ईसा मसीह को सिर्फ अल्लाह का पैगाम पहुंचाने वाले एक पैगम्बर मानते हैं. मुसलमान बाइबिल को अब अल्लाह की भेजी हुई आखिरी किताब नहीं मानते हैं. इसकी जगह वो इस्लाम के आखिरी पैगम्बर और उनपर उतारी गई किताब कुरआन को आखिरी आसमानी किताब मानते हैं. किसी मुसलमान के मुसलमान होने या ईमान वाला कहलाने के लिए ये एक ज़रूरी शर्त है कि वो अल्लाह की भेजे हुए तमाम रसूलों यानि पैग़म्बर और उनपर उतारी हुई किताब को दिल से कबूल करता हो. इस तरह ईमान वाला मुसलमान होने के लिए ज़रूरी है कि  ईसा मसीह को पैगम्बर माना जाए.. मुसलमान ईसा मसीह को पैगम्बर तो मानते हैं, लेकिन इसके बावजूद मुसलमान ईसा मसीह का जन्म दिन नहीं मनाते हैं और न ही इस दिन होने वाले किसी प्रोग्राम में शामिल होते हैं. यहां तक कि इस दिन कुछ मुसलमान किसी ईसाई को 'मेरी क्रिसमस' बोलने से भी परहेज करते हैं.   

ईसाई मज़हब की मान्यताओं के मुताबिक क्रिसमस ईसा मसीह की पैदाईश की खुशी में मनाया जाता है. ईसा मसीह को ईसाई ईश्वर का बेटा मानते हैं. हालांकि कई लेख में इससे जुड़ी अलग-अलग राय है. इसके अलावा हमें बाइबल में यीशु के जन्मदिन कि कोई तारीख का जिक्र नहीं मिलता है. ईसाई धर्म के लोग मानते हैं कि बेथलहम में 25 दिसंबर को जीसस क्राइस्ट का जन्म हुआ था. लेकिन इस्लाम में ईसा मसीह को लेकर अलग राय है. मुसलमान ईसा मसीह को अल्लाह का पैगंबर मानते हैं. मुस्लिम मान्यताओं के मुताबिक 'हज़रत ईसा अलैहीस्सलाम' मारियम के बेटे हैं, जिसे अल्लाह ने बिना बाप के पैदा किया था, जिसका जिक्र कुरान की सुरह 'इमरान' में मिलता है. लेकिन ईसाई 25 दिसंबर (क्रिसमस डे) को ईश्वर के बेटा होने की खुशीं में मनाते हैं. 

कई मुस्लिम मौलानाओं ने 'मेरी क्रिसमस' कहने को गलत करार दिया है. इसको लेकर भारत पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे देशों में हर 25 दिसंबर के आसपास कुछ ऐसी तस्वीरें, दलीले शेयर की जाती है, जिसमें मुसलमानों को क्रिसमस मनाने या उसकी मुबारकबाद देने से मना किया जाता है. आइयें जानते है मुसलमानों के लिए "मेरी क्रिसमस" कहना सही है या गलत है ?  

मुस्लिम क्रिसमस डे क्यों नहीं मना सकते? 
कुछ साल पहले भारत सरकार द्वारा भगोड़ा घोषित किए गए इस्लामिक उपदेशक ज़ाकिर नाइक ने अपनी एक वीडियों में कहा था कि "मेरी क्रिसमस कहना इस बात की गवाहीं देना है कि ईसा अलैहीस्सलाम अल्लाह के बेटे हैं. ऐसा करना अल्लाह को गाली देने के बराबर हैं." आपको बता दें कि इस्लाम में अल्लाह के साथ किसी को शरीक करना शिर्क (गलत) माना जाता है. ईसाई लोगों में क्रिसमस अल्लाह के बेटे की पैदाइश की खुशी में मनाया जाता है. इस अकीदे से क्रिसमस मनाना सीधे तौर पर इस्लाम के मूल सिद्धांत से टकराव में आ जाता है. लेकिन अब सवाल आता है कि अगर हमारा ये अकीदा नहीं है कि ईसा मसीह अल्लाह के बेटे थे, और हम बस अपने पड़ोसी, दोस्त, या सहकर्मी जो ईसाई धर्म और क्रिसमस में अकीदा रखता है, उसको इस त्योहार की मुबारकबाद देतें है तो क्या ये सही है या गलत?

क्या कहते हैं जानकार? 
जब आप ऐसी जगह काम करते हों या रहते हों जहा ईसाई मज़हब को मानने वाले लोग रहते हैं. अलग-अलग धर्म को मानने वाले लोग रहते हों. ऐसे में हम क्रिसमस के मौके पर अपने ईसाई दोस्त को विश करे या नहीं? इसका जवाब देते हुए दिल्ली की जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफेसर डॉ. अरशद कहते हैं कि, "अगर हमारा कोई ईसाई दोस्त या पड़ोसी है तो उसको हम क्रिसमस की मुबारकबाद दे सकते हैं. लेकिन मुबारकबाद देने के लिए इस्तेमाल किए गए अल्फ़ाज़ ऐसे न हो जिनका इस्लामिक अकीदे से टकराव हो. हम एक-दूसरे के त्योहारों में आपसी सोहार्द के लिए शरीक हो सकते हैं, लेकिन हमारा अकीदा या त्योहार में जाने के तारीका वैसा न हो जिससे ये लगे कि हम गैर-मुस्लिमों की मान्यताओं की गवाही दे रहें हैं.

पाकिस्तान के मशहूर मुफ्ती तारिक मसूद ने किसी दूसरे मजहब के त्योहार को मनाने और मुबारकबाद देने को गलत बताया है, और वे ये भी कहते कि इस चीज़ की इस्लाम में इजाज़त नहीं है.

"मुबारकबाद देना समाजी अमल"
जमात-ए-इस्लामी हिंद के शरिया कोंसिल के सद्र रज़ीउल इस्लाम नदवी कहते हैं, "मुबारकबाद देना एक समाजी अमल है और इससे मनाही करने वाले लोगों से मैं इत्तेफाक नहीं रखता. किसी भी गैर-मुस्लिम को हम उनके त्योहारों में मुबारकबाद दे सकते हैं." नदवी आगे कहते हैं, "जिस बहुधर्मी समाज में हम रहते हैं ऐसे में दूसरे मज़हब के लोगों से बिल्कुल किनारा करना न ठीक है न ही मुम्किन है. लेकिन हमें दूसरे मजहब के उन फंक्शनों में शरीक होने से बचना चाहिए, जिनमें दूसरे मजहब के रिचुअल्स होते हैं. नदवी ये भी कहते हैं, "आजकल होने वाले त्योहरों के फंक्शन अक्सर गेट-टुगेदर की तरह ही होते हैं, तो ऐसे फंक्शन में जाना भी गलत नहीं है." उलेमा मानते हैं कि मुस्लिम समाज में कम-पढ़े लिखे मौलाना इस तरह का ब्यान जारी कर समाज में तफरका पैदा करते हैं. उन्हें इस्लाम की आधी- अधूरी जानकारी होती है. उलेमा ऐसे किसी भी whatsap ज्ञान पर अमल करने के पहले उसे किसी जानकार आलिम या मुफ़्ती से तस्दीक करने की अपील करते हैं. 

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