रामचरित मानस की सीख, प्रगति पथ पर जरूर बढ़िए, उसका अहंकार मत पालिए

मनु्ष्य को कई बार ऐसे मौके मिलते हैं, जहां से वह अपनी भूल को समझकर बुरी वृत्तियों से वापसी कर सकता है, लेकिन कई बार अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि संकोच वश वह पुण्य के मार्ग पर वापसी नहीं कर पाता है. 

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Dec 6, 2020, 01:52 AM IST
  • श्रीराम के बाल्यकाल को देखकर कागभुशुंडि जी को हुआ अहंकार
  • नागपाश बंध काटते हुए प्रभु पर संदेह कर बैठे उनके भक्त गरुण जी
रामचरित मानस की सीख, प्रगति पथ पर जरूर बढ़िए, उसका अहंकार मत पालिए

नई दिल्लीः रामचरित मानस के उत्तरकांड में एक विशेष चौपाई है, 
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान॥

इसका भाव है कि हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है. हे कृपा के समुद्र भगवान्‌! उस पर क्रोध न कीजिए.

जानिए चौपाई का भाव
वस्तुतः यह प्रसंग कागभुशुंडि जी के लिए है, जिन्हें अपने ज्ञान पर अहंकार हो गया था और उन्होंने प्रभु की परीक्षा लेनी चाही थी. गोस्वामी तुलसी दास जी ने यह चौपाई भले ही प्रसंगवश लिखी, लेकिन यह मानव समाज की सचाई है. मनु्ष्य चार पैसे कमा लेता है, धन का संचय कर लेता है, उसके सारे काम बनने लगते हैं तो इसके बाद वह खुद को ही सर्वे सर्वा समझने लगता है. 

आज संसार इस भव में फंसा है
संसार में यहीं से माया के असर की वृत्ति का जन्म होता है, जो कभी मद और लोभ का आवरण चढ़ा कर हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष से पापकर्म करवाती है तो कभी महाभक्त और महाज्ञानी रावण से भी स्त्री हरण जैसा कृत्य करा डालती है.

मनु्ष्य को कई बार ऐसे मौके मिलते हैं, जहां से वह अपनी भूल को समझकर बुरी वृत्तियों से वापसी कर सकता है, लेकिन कई बार अहंकार इतना बड़ा हो जाता है कि संकोच वश वह पुण्य के मार्ग पर वापसी नहीं कर पाता है. 
 
हर किसी को मिलता है अवसर
प्रहलाद के रूप में हिरण्यकशिपु को कई अवसर मिले, रावण को हर सेनापति की हार से अवसर मिला, अंगद और हुनुमान के रूप में भी अवसर मिला, यहां तक की दुर्योधन को 18 दिन तक और हर भाई की मृत्यु के साथ अवसर मिलता रहा,  लेकिन  वही माया के वश में होकर जीव जड़ हो जाता है, अर्थात मूर्ख हो जाता है.

इसलिए घमंड में जब तक कुल का नाश न हो गया, माया का फेर नहीं मिटा. 
आज के युग की भी यही समस्या है. समाज से लेकर प्रांत और पड़ोसी देशों और अन्य राष्ट्रों के साथ सीमाओं पर हो रही समस्या इसी माया का व्यापक खेल है. 

तुलसीदास महाराज मानस में इस नाजुक पक्ष की ओर बड़ा ही करारा चोट करके इंगित करते हैं. 
जो भक्त माया के फेर को जल्दी समझ जाते हैं वह गरुण जी और कागभुशुंडि की तरह ही महान भक्त बनते हैं. 

जब कागभुशुंडि जी को हुआ संदेह
कौवे के रूप में जन्म लेने वाले कागभुशुंडि जी को श्रीराम का बाल स्वरूप देखकर संदेह हो गया था. प्रभु बाललीला में खिलौने के लिए रोते, पांव पटकते, भोजन में आऩा-कानी करते और चांद खिलौना मांगते. यह देखकर कागभुशुंडि जी को संदेह हो गया कि क्या यही त्रिलोक के स्वामी हैं. क्या ही श्री राम शेषशायी महाविष्णु के अवतार हैं? ऐसा संदेह करते हुए काग जी ने भगवान के हाथ से रोटी छु़ड़ा ली औ आकाश में उड़ चला. 

कुछ दूर उड़ान भरने पर देखता क्या है कि एक नन्हा हाथ उसकी ओर बढ़ता जा रहा है. कागजी घबराए और उड़ान तेज की लेकिन वह हाथ उनके बराबर पहुंच गया. ब्रह्मलोक, स्वर्ग लोक, कैलाश, सू्र्य -चंद्र सभी के पार और सभी से बड़ा वह नन्हा हाथ दिख रहा है. ऐसा देखकर कागभुशुंडि जी का संदेह दूर हुआ और वह त्राहिमाम करते हुए श्रीचरणों में जा गिरे. इसके बाद प्रभु ने उन्हें क्षमा कर अपनी भक्ति का वरदान दिया. 

कागभुशुंडि जी ने दूर किया गरुण जी का संदेह
ऐसा ही संदेह गरुण जी को हो गया. जब प्रभु श्री राम रण में अनुज लक्ष्मण समेत नागपाश में बंध गए थे. अचेत प्रभु की स्थिति देखकर हनुमान जी तुरंत ही गरुण जी को लिवा लाए. गरुण जी ने नाग बंधन तो काट दिया, लेकिन उनके मन में संदेह हो गया कि भव बाधा के बंधन काट देने वाले इस तुच्छ से नागपाश में बंधे कैसे?

क्या सच में श्रीराम महाविष्णु के अवतार हैं? ऐसा संदेह पहले उन्होंने नारद मुनि पर प्रकट किया, लेकिन नारद ने उन्हें ब्रह्म लोक भेज दिया. ब्रह्म देव ने गरुण जी को कैलाश भेजा और कैलाश पति ने पावन भक्ति का वरदान देते हुए गरुण जी को कागभुशुंडि जी के पास भेजा. 

यहां काग जी ने गरुण जी को सविस्तार प्रभु की कथा सुनाई, अपने संदेह की कथा बताकर गरुण जी का संदेह दूर किया. मानस कई इस चौपाई का मर्म है कि मनुष्य प्रगति के पथ पर जरूर बढ़े, लेकिन उस प्रगति का घमंड न करे. किसी और की प्रगति में बाधक न बने. जिए और जीने दे का विचार रखे. तभी मानस का पाठ सार्थक होगा. 

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