नई दिल्लीः सनातन परंपरा में आधात्यम की दृष्टि से पौष पूर्णिमा आत्मिक शोधन का प्रतीक है. यह प्रकृति से जुड़ा उत्सव है जो हमें जल, फल-फूल, शाक-सब्जियों की महत्ता को समझाता है. इनके कारण हमारा पालन-पोषण होता है, इसलिए शाक-सब्जियों का एक स्वरूप मां का भी है. प्रकृति के इस ममता मयी स्वरूप को शाकंभरी कहते हैं.
शाकंभरी, यानी शाक-सब्जियों से भरण-पोषण करने वाली. दुर्गा सप्तशती में मां के इस स्वरूप की पूरी व्याख्या है. वैसे तो यह अवतारवाद से निकली कथा है, लेकिन असल में यह प्रतीक के तौर पर प्रकृति की ही पूजा है. भोजन करके ही हमें जीवन दायिनी शक्ति मिलती है, इसलिए देवी दुर्गा का यह स्वरूप शक्ति का ही रूप है. पौष पूर्णिमा के अवसर पर ही शाकंभरी देवी का अवतरण हुआ था.
देवी के प्रकट होने की पीछे की वजह देवासुर संग्राम था. असुर स्वर्ग और पाताल के बंटवारे से हमेशा असंतुष्ट रहे थे और देवताओं पर चढ़ाई करते रहते थे. इसी क्रम में रुरु नाम के दैत्य ने भी स्वर्ग पर चढ़ाई की, लेकिन वह मारा गया. उसके पुत्र दुर्गमासुर ने भी राजा बनने के बाद यह हठ दोहराया. लेकिन उसने युद्ध का नहीं तपस्या का मार्ग अपनाया. उसने कठोर तप किया और ब्रह्मदेव से वेद मांग लिए. वह इन्हें संसार से लुप्त करना चाहता था. वह चाहता तो वेदों का ज्ञान मांग सकता था, लेकिन कहते हैं कि जितनी बुद्धि उतनी सिद्धि.
दुर्गमासुर ने छिपा दिए वेद
इस हठ के पीछे असुर की सोच थी कि जब वेद ही नहीं रहेंगे तो यज्ञ नहीं होंगे और देवताओं को यज्ञ का भाग नहीं मिलेंगा तो वे कमजोर हो जाएंगे. असुर ने वेदों को पाताल की किसी कंदरा में छिपा दिया और ज्ञान के लुप्त हो जाने के बाद पाप का साम्राज्य फैलाने लगा. परिणाम हुआ कि ऋषि शालाओं में वेदमंत्र पाठ बंद हो गए.
लोग सहजता-सरलता भूलकर कठोर होने लगे. इससे धरती अकाल ग्रस्त हो गई. नदियां सूख गईं और वर्षा बंद हो गई. इधर दुर्गमासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया. देवता हार गए.
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देवी अंबिका को लगाई पुकार
सारी धरती पर पाप और कष्ट देखकर देवताओं ने देवी अंबिका को पुकारा. उनके साथ ब्रह्मा-विष्णु महेश तीनों ही थे. सबकी पुकार सुनकर देवी प्रकट हुईं और भक्तवत्सल श्रीहरि की ओर देखकर कहा-जगतपालक, देवताओं पर अब क्या संकट आया है. हरि ने कोमल स्वरों में कहा- इस समय केवल देवताओं पर ही संकट नहीं है.
आपकी प्रिय संतान मनुष्य भी विलाप कर रहा है. उन्होंने कहा कि आप सब जानती हैं, लेकिन फिर भी आप उनके कष्ट अपनी आंखों से देखें, फिर निर्णय करें कि क्या करना है. असुर ने केवल देवताओं को हराया ही है, वे तो फिर जीत लेंगे. लेकिन मानव जाति पर तो वह अज्ञानता और पाप का बोझ डाल रहा है.
देवी अंबिका का शताक्षी अवतार
श्रीहरि के ऐसे करुणा भरे शब्द सुनकर देवी ने एक ही बार में संपूर्ण विश्व को देखने के लिए 100 नेत्र प्रकट किए. उन्होंने देखा कि मनुष्य प्यास से भटक रहा है. कृषकाय हिरण सिंहों से बचाव के लिए भाग नहीं रहे, सिंह भी इतने कमजोर हैं कि सामने पड़े आहार को भी नहीं खा रहे. विश्व इस वक्त प्यासा है. उसे शीतल जल चाहिए, शीतलता देने वाला ज्ञान चाहिए.
करुणा न के बराबर है. अत्याचार है, लेकिन दया कहीं नहीं. मां का अंबा स्वरूप यह सब देख कर रो पड़ा. उनके आंसू धरती पर गिरे तो जलधारा बन गए. इससे देवी ने फिर से धरती को सींच दिया. देवी का 100 नेत्रों वाला यह रूप शताक्षी कहलाया.
देवी अंबा ने धरा शाकंभरी स्वरूप
पृथ्वी को सींचने के बाद देवी अंबिका ने अकाल को दूर करने का निर्णय लिया. उन्होंने अपनी सूक्ष्म शक्ति की महालक्ष्मी और महासरस्वती की ओर देखा. दोनों देवियों के प्रभाव से एक तेजपुंज प्रकट हुआ. देवताओं ने देखा कि चेहरे पर तेज, ग्रामीण वेष और सरलता की प्रतिमूर्ति. एक हाथ में धान तो दूसरे में पौधे की लता.
देवी का यह स्वरूप अत्यंत शांति देने वाला मातृस्वरूपा है. कैलाश पर देवी पार्वती अन्नपूर्णा स्वरूप में रहती हैं. उनकी प्रेरणा से जब भगवती के प्रकट इस स्वरूप ने धरती पर देखा तो द्रवित हो उठीं. उन्होंने पहले तो अपने भक्तों का भय दूर किया और उन्हें कृषि कर्म की प्रेरणा दी. देवी की कृपा से धरती फिर से शाक-सब्जियों से हरी-भरी हो गई. देवी का यह स्वरूप शाकंभरी कहलाया. यानी कि शाक से भरण करने वाली.
कृषि प्रधानदेश भारत में खेतों में काम करते हुए कई महिलाएं दिख जाएंगीं. पुरुष हल चलाता है, पानी लगाता है, लेकिन अक्सर खेतों में बीज बोने, निराई-गु़ड़ाई करने वाली और खर-पतवार हटाने वाली महिलाएं ही होती हैं. कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, पं, बंगाल ओडिशा, केरल-कर्नाटक में हर जगह दिख जाएगा कि जब तक महिलाओं का हाथ न लगे फसल घर तक नहीं आ सकती है. यह सभी महिलाएं ही देवी शाकंभरी हैं.
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में शाकंभरी माता का विख्यात मंदिर है. यह 51 शक्तिपीठों में से एक है. देवी के भक्त माता के दर्शन करने पहुंचते हैं. देवी की यह कृपा पौष पूर्णिमा को ही बरसी थी. इसलिए आज का दिन शाकंभरी जयंती के तौर पर जाना जाता है.
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