भगवान श्रीकृष्ण और गरुड़ के बीच का संवाद ही गरुड़ पुराण के रूप में संकलित किया गया है. इस पुराण में भगवान श्रीकृष्ण के मुख से अलौकिक कथाएं कही गई हैं. जिसमें मनुष्य लोक से परे दूसरे लोकों का वर्णन है.
प्रेतों के बारे में गरुड़ की जिज्ञासा
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के भक्त, शिष्य और वाहन गरुड़ जी ने मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में जिज्ञासा प्रकट की. तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे गरुड़, तुम्हारे अनुरोध पर मैं तुम्हें एक कथा सुनाता हूं. जिसे सुनकर पता चलता है कि मनुष्य अपने दुष्कर्मों की कैसी सजा भोगता है.
ये कथा कुछ इस प्रकार है-
प्राचीन काल में संतप्तक नाम के एक विद्वान ने घोर तपस्या करके पापों से मुक्ति हासिल की. वह निर्मल ज्ञान प्राप्त करने के बाद वनवासी हो गए. उनका संपूर्ण जीवन तपस्या में बीत रहा था. एक दिन उनके मन में विचार आया कि मैने कभी तीर्थयात्रा नहीं की, जिसके बिना एक सनातन धर्मी का जीवन अधूरा माना जाता है. ऐसा सोचकर संतप्तक महान तीर्थों की यात्रा करने के लिए निकल पड़े.
संतप्तक की प्रेतों से मुलाकात
ऋषि संतप्तक तीर्थों की यात्रा के लिए निकल तो पड़े थे. लेकिन उन्हें अपनी तपस्थली के अतिरिक्त किसी दूसरे क्षेत्र में विचरण करने का अनुभव नहीं था. इसलिए वह मार्ग भटक गए और एक घने जंगल में पहुंच गए. वह भूख और प्यास से पीड़ित हो रहे थे. उन्हें किसी सरोवर या तालाब की तलाश थी.
लेकिन उस घने डरावने जंगल में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. चारो तरफ से सिर्फ हिंसक जानवरों की आवाज ही आ रही थी.
उस जंगल में भटकते भटकते संतप्तक ऋषि को एक विशाल बरगद का पेड़ दिखाई दिया. जिसपर एक शव लटक रहा था. जिसके साथ पांच प्रेत लिपटे हुए थे. वह उस शव का भक्षण कर रहे थे. इन प्रेतों का स्वरुप बेहद वीभत्स था. उनका पूरा शरीर सूखा हुआ था और उनके सभी आंतरिक अंग बाहर दिखाई दे रहे थे.
संतप्तक को मारने दौड़े प्रेत
जैसे ही इन भयानक प्रेतों ने संतप्तक ऋषि को देखा वह सभी दौड़ते हुए आए और उन्हें घेर लिया. सभी प्रेत आपस में झगड़ने लगे कि इस मनुष्य को कौन खाएगा.
भयभीत होकर संतप्तक भगवान से प्रार्थना करने लगे. तब उनकी रक्षा के लिए श्रीहरि ने मणिभद्र यक्ष को भेजा. जिन्होंने अपनी ताकत से उन प्रेतों को बांध लिया और ऋषि संतप्तक के चरणों में डाल दिया.
प्रेतों को सदबुद्धि आई
मणिभद्र यक्ष की प्रताड़ना और ऋषि संतप्तक की जप-तप और पूजा के प्रताप से प्रेतों की सद्बुद्धि जगी. उनमें अपने पूर्वजन्म की स्मृति जग गई. वे सभी संतप्तक ऋषि से क्षमा मांगने लगे और कहने लगे कि पूर्वजन्म के पापों के कारण हम सभी प्रेतों को यह निकृष्ट योनि प्राप्त हुई है. हमारे नाम हैं- पर्युषित, शुचिमुख, शीघ्रग, रोधक और लेखक..
हे पापरहित ऋषिवर आपके दर्शन करके आपके तप के प्रभाव से हमारी बुद्धि निष्पाप हो गई है. तब ऋषि संतप्तक ने उन पांचों प्रेतों से उनकी इस दुर्गति का कारण पूछा. प्रेतों ने अपनी कहानी बतानी शुरु कर दी.
पर्युषित की कहानी
सबसे पहले पर्युषित नाम के प्रेत ने अपनी कहानी बताई. उसने कहा कि पर्युषित का अर्थ होता है जूठा और बासी. मैने पिछले जन्म में श्राद्ध पक्ष के दौरान विद्वानों को अपने घर में भोजन के लिए न्योता दिया था. लेकिन जिस विद्वान ब्राह्मण को मैने बुलाया था. वह बेहद वृद्ध थे और बड़ी मुश्किल से चल पाते थे. उन्हें अपने घर से मेरे घर तक पहुंचने में काफी देर लग रही थी.
लेकिन इस दौरान मेरा भूख से बुरा हाल हो गया और मैने जो भी भोजन बनाया था उसे खुद ही खा गया. इसके बाद जब बुजुर्ग विद्वान मेरे घर तक पहुंचे तो मैने उन्हें जूठा भोजन ही परोस दिया. इस पाप के कारण मुझे प्रेत योनि मिली.
शुचिमुख की कहानी
दूसरे प्रेत का नाम शुचिमुख था. यानी जिसका मुख सुई के छेद के समान हो. उसने बताया कि वह पिछले जन्म में एक लुटेरा था. उसे जो कोई भी दिखाई देता था वह बिना कोई दया दिखाए उसे लूट लेता था. वह बड़ा बलवान था.
एक बार एक मां और उसका 5 साल का बेटा तीर्थयात्रा करने जा रहे थे. लेकिन रास्ते में उसे यह लुटेरा मिल गया और उसने उन दोनों से सब कुछ छीन लिया और उनकी बेहद पिटाई भी की. जिससे उन दोनों की मौत हो गई.
इस पाप के कारण वह लुटेरा प्रेत बना और उसका नाम हुआ शुचिमुख. उसका मुंह सुई के छेद की तरह है और वह कुछ भी खा-पी नहीं सकता. क्योंकि उसके सुई के छेद जैसे मुंह में कुछ जाता ही नहीं.
प्रेत शीघ्रग की कहानी
तीसरा प्रेत अपने पूर्वजन्म में एक व्यापारी था. वह अपने कारोबार के सिलसिले में दूर दूर की यात्रा करता था. एक बार वह अपने घनिष्ठ मित्र के साथ व्यापार करने के लिए दूर देश गया था. लेकिन इस व्यापार में उसके मित्र को बहुत लाभ हुआ. जबकि उसे बेहद घाटा हुआ. इसकी वजह से उसके मन में जलन की भावना आ गई.
लौटते समय वह जलमार्ग से पानी के जहाज पर यात्रा कर रहे थे. इस दौरान उसका मित्र सो गया. तब उसने अपने नींद में डूबे मित्र को गहरे पानी में धकेल कर मार डाला और उसका पूरा धन हड़प लिया.
इस पाप के कारण उसे प्रेतयोनि की प्राप्ति हुई.
रोधक की कहानी
चौथा प्रेत अपने पूर्वजन्म में एक जमींदार था. उसके अधिकार में सौ गांव थे. लेकिन उसकी धन संपत्ति की लालसा कम नहीं हुई.
रोधक का एक छोटा भाई और बुजुर्ग माता पिता थे. लेकिन धन के लालच में उसने उन सभी को अपने घर से निकाल दिया. जिसके कारण वह सभी भूख प्यास से पीड़ित होकर बेहद कष्ट भोगते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए.
इस पाप के कारण वह प्रेत योनि में भटकने लगा.
प्रेत लेखक की कहानी
पांचवा प्रेत एक मंदिर का पुजारी था. वह उज्जैन के एक बेहद प्रतिष्ठित मंदिर में भगवान की सेवा के लिए नियुक्त था. लेकिन वह स्वभाव से बेहद लालची था. एक बार उसने मंदिर में लगी हुई भगवान की मुर्तियों के आभूषण और रत्न निकाल लिए. जिसकी वजह से ईश्वरीय श्रीविग्रह बेहद कुरुप दिखाई देने लगे.
उसी समय वहां का राजा पुजा करने के लिए वहां पर आया. उसने भगवान की कुरुप मूर्तियों को देखा तो संकल्प किया कि जिसने भी यह कुकृत्य किया है उसे वह मृत्यु दंड देगा.
राजा का ऐसा संकल्प सुनकर पुजारी डर के मारे कांपने लगा.
जब राजा भगवान के सामने सिर झुकाकर प्रणाम कर रहा था. तभी उसने राजा की तलवार उठाकर उसका सिर काट दिया और वहां से भाग खड़ा हुआ. लेकिन उसके पाप ने उसका पीछा किया और वह प्रेत बनकर इस भयानक वन में रहने लगा.
क्या है प्रेतों का भोजन?
ऋषि संतप्तक ने इन प्रेतों से उनकी दर्द भरी कहानी सुनी और पूछा कि तुम सभी का आचरण और आहार क्या हैं?
प्रेतों ने जवाब दिया कि जिस घर में पुजा-पाठ, शुभ कर्म, साफ सफाई, श्राद्ध और तर्पण नहीं किए जाते हम उन घरों में बेहद आसानी से प्रवेश कर जाते है. वहां रहने वालों के शरीर से निकली गंदगी ही हमारा भोजन है. जल्दी ही हम ऐसे अशुद्ध घरों में रहने वाले लोगों को अपने जैसा बना लेते हैं.
हम सभी अज्ञानी,तामसी और मंदबु्द्धि हैं और ऐसे ही लोगों के बीच रहना पसंद करते हैं. लेकिन आज आपके सत्संग और तप के प्रभाव के कारण हमारी पूर्वजन्म की स्मृति जग गई.
ऋषि संतप्तक ने दिलाई मुक्ति
उन प्रेतों की राम कहानी सुनकर ऋषि संतप्तक को दया आ गई. उन्होंने कहा कि हजारों वर्ष प्रेतयोनि में रहने के बाद उनके पापों का क्षय हो गया है. उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से उन प्रेतों के पाप क्षमा कर देने की प्रार्थना की.
भगवान ने भी ऋषि संतप्तक की गुहार पर उन प्रेतों के पाप क्षमा किए और उन्हें सद्गति प्रदान की.
यह कथा सुनाने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़ जी से कहा कि मनुष्य को ऐसा लगता है कि वह भागकर अपने दुष्कर्मों से बच सकता है. लेकिन यह सत्य नहीं है. पाप मनुष्य के पीछे पीछे चलता है और आखिरकार उसे शिकार बना कर ही दम लेता है. इसलिए पाप से दूर रहना चाहिए. यदि गलती से कोई पाप हो भी जाए तो उसके लिए तुरंत पश्चाताप करते हुए क्षमा मांगनी चाहिए.
मनुष्य प्रतिदिन हजारों कर्म करता है. उन कर्मों में पाप और पुण्य दोनों होते हैं. जिनके प्रभाव से बचने के लिए उसे अपने सभी कर्म मुझे अर्थात् श्रीकृष्ण को समर्पित करना चाहिए और निष्काम जीवन व्यतीत करना चाहिए. (गरुड़ पुराण से संकलित कथा)