क्षमः यशः क्षमा दानं क्षमः यज्ञः क्षमः दमः।
क्षमा हिंसा: क्षमा धर्मः क्षमा चेन्द्रियविग्रहः॥
अर्थात्- क्षमा ही यश है क्षमा ही यज्ञ और मनोनिग्रह है ,अहिंसा धर्म है. और इन्द्रियों का संयम क्षमा के ही स्वरूप है क्योंकि क्षमा ही दया है और क्षमा ही पुण्य है क्षमा से ही सारा जगत् टिका है अतः जो मनुष्य क्षमावान है वह देवता कहलाता है. वही सबसे श्रेष्ठ है.
वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच श्रेष्ठता का निर्णय इसी गुण ने किया था. ब्रह्मा जी विश्वामित्र के घोर तप से प्रसन्न होकर प्रकट हुए और उन्हें राजर्षि कहकर संबोधित किया. विश्वामित्र इस वरदान से संतुष्ट न थे. उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से जाहिर कर दिया कि ब्रह्मा उन्हें समुचित पुरस्कार नहीं दे रहे.
उनकी मनोदशा भांपकर ब्रह्माजी ने कहा कि तुम्हें बहुत ज़ल्दी आभास हो जाएगा कि आखिर मैंने ऐसा क्यों कहा? जो चीज़ तुम्हें मैं नहीं दे सकता उसे तुम उससे प्राप्त करो. जिससे द्वेष रखते हो. विश्वामित्र के लिए यह जले पर नमक छिड़कने की बात हो गयी. जिस वसिष्ठ से प्रतिशोध के लिए राजा से तपस्वी बने हैं उनसे वरदान लेंगे!
विश्वामित्र को लगा कि ब्रह्मा अपने पुत्र को श्रेष्ठ बताने के लिए भूमिका बांध रहे हैं.
विश्वामित्र सामान्य बात को भी आन पर ले लेते थे इसलिए राजर्षि ही रहे जबकि वशिष्ठ क्षमा की प्रतिमूर्ति थे. उन्होंने यह भुला दिया कि विश्वामित्र ही उनके पुत्र शक्ति की हत्या के लिए उत्तरदायी हैं.
वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुंधति से विश्वामित्र के तप की प्रशंसा किया करते थे. एक दिन क्रोध में अंधे होकर विश्वामित्र हाथ में तलवार लिए वशिष्ठ की हत्या करने चुपके से आश्रम में घुसे थे. उन्होंने वशिष्ठ और अरुंधति को बात करते देखा.
वशिष्ठ कह रहे थे- अरुंधति! तपस्वी हो तो विश्वामित्र जैसा.
विश्वामित्र के हाथ से तलवार छूट गई. राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के चरणों में लोट गए- हा देव! क्षमा! हा देव क्षमा! इसके अलावा कुछ निकलता ही न था मुख से.
वशिष्ठ ने कहा- उठिए ब्रह्मर्षि विश्वामित्र! देवो ने पुष्पवर्षा करके वशिष्ठ का अनुमोदन कर दिया. क्षमा गुण धारण करने के कारण वशिष्ठ वह वरदान देने में समर्थ थे जो स्वयं ब्रह्मा न दे सके.
बड़े दिल वाला व्यक्ति आरम्भ में मात खा सकता है, परंतु अंतिम बाज़ी उसी के हाथ होती है.
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