नई दिल्लीः युद्ध में हारकर राजा सुरथ और परिवार से तिरस्कृत होकर समाधि वैश्य वन में भटक रहे थे. दोनों की आपस में मुलाकात हुई तो उन्होंने पाया कि दोनों का दुख समान है. इस समानता ने उन्हें मित्र बना दिए और वे चलते-चलते महर्षि मेधा के आश्रम में पहुंचे.
यहां ऋषि अपने शिष्यों को सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में आख्यान दे रहे थे. उन्होंने एक सूक्ति कही, एकोअहं, बहुष्यामि. इसका अर्थ बताते हुए कहा कि एक हूं, बहुत होना चाहता हूं. यह सूक्ति सुनकर राजन को कुछ शांति मिली.
ऋषि चरणों में पहुंचे राजा सुरथ और वैश्य
सूक्ति सुनते ही समाधि वैश्य और राजन ने दौड़कर ऋषि के चरण पकड़ लिए और त्राहिमाम कहते हुए विलाप करने लगे. शांतचित्त ऋषि ने दोनों को आशीष देते हुए उठाया और उन्हें उनकी चिंता दूर करने का आश्वासन देते हुए निकट बैठाया. सांत्वना देने वाले वचन कहे, जल पिलाया और कहा कि अब आप दोनों बताइए, क्या चिंता है?
मैं हर संभव उसे दूर करने का प्रयास करूंगा. तब राजन सुरथ और समाधि ने अपनी-अपनी आप बीति महर्षि मेधा को बता दी. फिर कहा कि-हे देव हमारे ह्रदय में मोह क्यों बना हुआ है, इसका कारण क्या है?
तब महर्षि ने सुनाया देवी महात्म्य
महर्षि मेघा ने उन्हे समझाया कि मन शक्ति के आधीन होता है,और आदि शक्ति के अविद्या और विद्या दो रूप है, विद्या ज्ञान स्वरूप है और अविद्या अज्ञान स्वरूप. जो व्यक्ति अविद्या (अज्ञान) के रूप में उपासना करते है, उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं.
इतना सुन राजा सुरथ ने प्रश्न किया- हे महर्षि ! देवी कौन है? उसका जन्म कैसे हुआ? वह कहां मिलेंगी? उनके महात्म्य के विषय में बताइए. हम उन्हें कैसे पुकारें?
महर्षि मेधा ने किया देवी के स्वरूप का वर्णन
राजन ने एक स्वर में उत्सुकता वश सारे प्रश्न कर लिए. महर्षि बोले- आप जिस देवी के विषय में पूछ रहे हैं ,वह नित्य स्वरूपा और विश्वव्यापिनी है. वह आदि शक्ति हैं. उन्हें परमा की संज्ञा भी प्राप्त है. वह आपके ईष्ट क्षीरसागर में शयन करने वाले पालक विष्णु की योगमाया शक्ति भी हैं और उनकी योगनिद्रा भी हैं.
श्रीहरि के कर्णमैल से उत्पन्न मधु-कैटभ का अंत भी योगमाया की कृपा से हुआ. वह सदैव उनके नयनों में निवास करके संसार को देखती हैं. उनका प्राकट्य हुआ, जन्म नहीं. वह अनादि हैं और अनंत भी. यह सत्य है कि वह संसार के कल्याण के लिए जन्म लेती रही हैं. फिर भी वह आदि स्वरूपा हैं.
राजन ने सुनीं देवी के प्राकट्य की कथा
ऋषि ने विस्तार से देवी का प्राकट्य सुनाना शुरू किया. एक समय देवराज इंद्र और दैत्य महिषासुर में सैकड़ों वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ, इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा. उसे ब्रह्माजी से वरदान था कि उसका काल एक स्त्री होगी.
यह वरदान पाकर वह स्वयं को अमर समझने लगा, क्योंकि कन्याओं व स्त्रियों को वह तुच्छ समझता था. उसके आतंक से आतंकित होकर देवतागण ब्रह्मा के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गए.
यहां देवताओं की व्यथा बताते हुए ब्रह्मदेव को क्रोध आने लगा. उनकी यह अवस्था देखकर श्रीहरि और महादेव भी क्रोधाग्नि में जलने लगे. देवताओं के भी रक्त में अपनी दुर्दशा देखकर उबाल आने लगा.
इसी तेज से हुआ देवी भगवती का प्राकट्य
जब यह ताप बढ़ने लगा तो वह तेजपुंज के रूप में प्रकट हुआ. वह समस्त देवताओं के क्रोध से उत्पन्न हुआ था, इसलिए सारी सृष्टि उससे जलने लगी. तब योगमाया जो कि अब तक सृष्टि में घुली हुई थीं उन्होंने आकार लिया और शक्ति पुंज से स्त्री स्वरूप में सामने प्रकट हुईं. देवगणों ने उनकी स्तुति की.
अपने आयुधों से उन्हें सज्ज किया और प्रकृति ने उनका श्रृंगार किया. इसके बाद देवताओं ने आर्त स्वर में उनसे प्रार्थना की और रक्षा का वचन लिया. देवी ने शक्ति पाकर घोर गर्जना की और अट्टहास किया, जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई.
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देवी ने किया महिषासुर का वध
महिषासुर अपनी सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौडा, उसने देखा कि देवी के प्रभाव से तीनों लोक आलोकित हो रहे हैं. महिषासुर की देवी के सामने एक भी चाल सफ़ल नही हुई और वह देवी के हाथों मारा गया,आगे चलकर यही देवी शुम्भ और निशुम्भ राक्षसों का वध करने के लिये गौरी देवी के रूप में अवतरित हुईं.
फिर उन्होंने चंड-मुंड और रक्तबीज का भी संहार कर देवताओं को अभय दिया. इसके बाद महर्षि ने देवी के सूक्ष्म स्वरूप की व्याख्या की. दस महाविद्या का वर्णन किया और नवदुर्गा की व्याख्या की.
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राजा सुरथ और समाधि वैश्य बने देवी के कृपा पात्र
इन व्याख्यानों को सुनाकर मेघा ऋषि ने राजा सुरथ तथा बनिया से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की. राजा और वैश्य ने नदी तट पर देवी की तपस्या की. तीन वर्ष तक घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हे आशीर्वाद दिया.
उन्होंने दोनों ही भद्र पुरुषों को आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान का वरदान दिया और इ्च्छित वर पाने का आशीष दिया. देवी के प्रताप से समाधि वैश्य संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया. राजा सुरथ ने शत्रुओं पर आक्रमण करके विजय प्राप्त करके अपना वैभव प्राप्त कर लिया.
देवी के सबसे प्रथम कृपा पात्रों के रूप में यह दोनों भक्त चिरकाल तक अमर हैं. श्रीदुर्गा सप्तशती के रूप में इनकी कथा देवी भागवत का महात्म्य बताती रहेगी.