नई दिल्लीः देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना और पालक विष्णु ने आत्मिक शक्तियों से सूर्य-चंद्रमा और अन्य देवों को प्रकट कर सभी को उनके लोक प्रदान किए. महादेव की आज्ञा से असुर पाताल लोक के अधिपति बनाए गए और स्वयंभू मनु के निर्देशन में पृथ्वी पर मानव समाज उन्नति करने लगा.
श्रीहरि योगमाया के सहयोग से पोषण करने लगे और देवी सरस्वती ने ब्रह्म प्रेरणा से पृथ्वी को सरस और पुण्य सलिला बनाया. ब्रह्मदेव ने वेद रचे और देवताओं को उसका ज्ञान दिया. मनुष्यों के लिए यह ज्ञान साधना के बल पर अर्जित करने का नियम बनाया गया.
वेद और गंगा के लिए असुर करते रहे युद्ध
खुद को पाताल लोक मिलने से असुर स्वर्ग के प्रति जलन तो रखते ही थे, वेदों के ज्ञान और देवनदी गंगा को भी स्वर्ग में दिए जाने से वह अपमानित महसूस करते थे. वे यह नहीं समझते थे कि यह दोनों ही अमूल्य निधि दी या ली नहीं जा सकती, बल्कि तप-साधना से ही पाई जा सकती है.
श्रीहरि को मानव समाज इसलिए भी प्रिय था क्योंकि वह पुरुषार्थ पर अधिक निर्भर रहता था, दैवयोग पर नहीं. जबकि असुर दिए हुए राज्य को अस्वीकार करते रहे और सहज प्राप्त की जा सकने वाली निधियों के लिए लड़ते रहे. उनकी कई पीढ़ियां इसी में खप गईं.
दुर्गमासुर ने दोहराया हठ, मांग लिए वेद
इसी क्रम में एक बार की बात है. असुर हिरण्याक्ष के वंश में रुरु नाम का एक दैत्य हुआ. पीढ़ियों से चलते आ रहे हठ के फलस्वरूप उसने भी स्वर्ग की लालसा में युद्ध को निमंत्रण दिया, लेकिन मारा गया. उसके बाद उसका पुत्र दुर्गमासुर राजा बना. बाहुबल में प्रबल यह राजा दुर्गम कहलाता था और राजा बनते ही उसने भी यही हठ दोहराया.
उसने देखा कि देवता वेदमंत्रों की शक्ति से संचालित होते है और यज्ञ की हवि से उन्हें ऊर्जा मिलती है तो उसने छल का सहारा लिया. असुर ने कठोर तपस्या कि और ब्रह्मदेव से चारों वेद मांग लिए, संसार से इस ज्ञान को लुप्त करने की मांग कर दी. वह चाहता तो वेदों का ज्ञान मांग सकता था, लेकिन कहते हैं कि जितनी बुद्धि उतनी सिद्धि.
दुर्गमासुर ने छिपा दिए वेद
दुर्गमासुर वेद ले तो आया, लेकिन उन्हें पढ़ने की उसमें रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं थी. असुर ने वेदों को पाताल की किसी कंदरा में छिपा दिया और ज्ञान के लुप्त हो जाने के बाद पाप का साम्राज्य फैलाने लगा. परिणाम हुआ कि ऋषि शालाओं में वेदमंत्र पाठ बंद हो गए. लोग सहजता-सरलता भूलकर कठोर होने लगे.
इसका असर वातावरण पर भी पड़ा और धरती अकाल ग्रस्त हो गई. सूर्य का तेज बढ़ गया और सरिताएं सूखती चली गईं. चारों ओर हाहाकार मच गया और यह देख दुर्गम अट्टहास करता हुआ स्वर्ग जीतने चल पड़ा. हवि और यज्ञ भाग न मिलने देवता कमजोर पड़ गए और उन्हें दुर्गम से हारना पड़ा.
देवी अंबिका को लगाई पुकार
सारी धरती पर केवल तपिश देखकर देवगण क्षीरसागर पहुंचे. श्रीहरि इस पूरे परिदृश्य से अछूते नहीं थे. इसलिए सभी ने मिलकर एक बार फिर देवी को पुकारा. उन्हें शुंभ-निशुंभ विदारिणी कहा, चंड-मुंड संहारिनी कहकर पुकारा, महिषासुर घातिनी कहकर रूदन किया और कहा कि रक्तबीज का वध करने वाली देवताओं को बार-बार अभय देने वाली मां कहां हो,
हमारी पुकार सुनो. श्रीहरि इस समय नेत्रों को बंद किए हुए थे. उनके आज्ञाचक्र पर तेजपुंज चमक रहा था. देवताओं की पुकार सुन देवी अंबिका अपने भव्य स्वरूप में प्रकट हुईं. देवतागण उन्हें देखकर हर्षित हुए.
श्रीहरि ने सुनाया सारा वृत्तांत
तब देवी ने भक्तवत्सल श्रीहरि की ओर देखकर कहा-जगतपालक, देवताओं पर अब क्या संकट आया है. हरि ने कोमल स्वरों में कहा- मेरे आज्ञाचक्र में निवास करने वाली पालन शक्ति की प्रेरणा देवी योगमाया. इस समय केवल देवताओं पर ही संकट नहीं है. आपकी प्रिय संतान मनुष्य भी विलाप कर रहा है.
वैसे तो आप सब जानती हैं, लेकिन फिर भी आप उनके कष्ट अपनी आंखों से देखें, फिर निर्णय करें कि क्या करना है. असुर ने केवल देवताओं पर युद्धक प्रहार किया है, लेकिन मानव जाति पर तो वह अज्ञानता और पाप का बोझ डाल रहा है.
देवी अंबिका का शताक्षी अवतार
श्रीहरि के ऐसे करुणा भरे शब्द सुनकर देवी ने एक ही बार में संपूर्ण विश्व को देखने के लिए 100 नेत्र प्रकट किए. उन्होंने देखा कि मनुष्य प्यास से भटक रहा है. कृषकाय हिरण सिंहों से बचाव के लिए भाग नहीं रहे, सिंह भी इतने कमजोर हैं कि सामने पड़े आहार को भी नहीं खा रहे.
विश्व इस वक्त प्यासा है. उसे शीतल जल चाहिए, शीतलता देने वाला ज्ञान चाहिए. करुणा न के बराबर है. अत्याचार है, लेकिन दया कहीं नहीं. मां का अंबा स्वरूप यह सब देख कर रो पड़ा. उनके आंसू धरती पर गिरे तो जलधारा बन गए. इससे देवी ने फिर से धरती को सींच दिया. देवी का 100 नेत्रों वाला यह रूप शताक्षी कहलाया.
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फिर अंबा ने धरा शाकंभरी स्वरूप
पृथ्वी को सींचने के बाद देवी ने अकाल को दूर करने का निर्णय लिया. उन्होंने अपनी सूक्ष्म शक्ति की ओर देखा और दोनों देवियों के प्रभाव से एक तेजपुंज प्रकट हुआ. देवताओं ने देखा कि चेहरे पर तेज, ग्रामीण वेष और सरलता की प्रतिमूर्ति. एक हाथ में धान्य तो दूसरे में पौधे की लता.
देवी का यह स्वरूप अत्यंत शांति देने वाला मातृस्वरूपा है. कैलाश पर देवी पार्वती अन्नपूर्णा स्वरूप में रहती हैं. उनकी प्रेरणा से जब भगवती के प्रकट इस स्वरूप ने धरती पर देखा तो द्रवित हो उठीं.
उन्होंने पहले तो अपने भक्तों का भय दूर किया और उन्हें कृषि कर्म की प्रेरणा दी. देवी की कृपा से धरती फिर से शाक-सब्जियों से हरी-भरी हो गई. देवी का यह स्वरूप शाकंभरी कहलाया. यानी कि शाक से भरण करने वाली. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में शाकंभरी माता का विख्यात मंदिर है. यह 51 शक्तिपीठों में से एक है. देवी के भक्त माता के दर्शन करने पहुंचते हैं.
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