नई दिल्लीः शताक्षी अवतार से पृथ्वी पर फिर से सरस सलिला हो गई और देवी शाकंभरी के आशीर्वाद से शाक-सब्जियों की बेल ने धरती को हरा-भरा कर दिया. देवी ने मानव समुदाय को फिर से श्रम के लिए प्रेरित किया और उन्हें उन्नत कृषि कर्म का ज्ञान दिया. इसका प्रभाव यह हुआ कि मनुष्य से फिर जोतने-बोने और अनाज उपजाने लगा. इस तरह देवी अंबिका ने एक कष्ट का निवारण किया. अब बारी थी दुर्गम के अत्याचारों के नाश की.
देवी ने दुर्गम को ललकारा
धरती पर अनायास हुए इस परिवर्तन की सारी गाथा कहने एक दूत पाताल की ओर भाग चला. दुर्गम से उसने पृथ्वी की हरियाली का हालसुनाते हुए कहा-राक्षसराज आपका प्रभाव समाप्त हो गया. इस बात से क्रोधित असुर ने उसका शीष काट डाला और खुद ही सारा रहस्य समझने सेना सहित चल पड़ा.
पृथ्वी पर पहुंचकर वह चौंका और इसे फिर से नष्ट करने के लिए प्रहार किया, लेकिन देवी ने एक सुरक्षा चक्र बनाकर मनुष्यों की रक्षा कर ली. दुर्गम ने सामने आने की चेतावनी दी देवताओं सहित देवी उसके सामने प्रकट हो गईं.
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भगवती ने लिया 64 योगिनी स्वरूप
देवताओं को वहां देखकर दुर्गम ने उन पर मोहिनी अस्त्र का प्रयोग किया और सभी राक्षसों सहित देवी और देवताओं की सेना पर टूट पड़ा. मोहिनी अस्त्र के कारण ही देवता दुर्गम से लड़ने में भ्रमित हो जाते थे और जहां देखते वहां दुर्गम को ही पाते थे.
यह दुविधा देखकर देवी को क्रोध आ गया और उनकी भृकुटि तन गईं, केश लहराने लगे, भुजाएं फड़कने लगीं और नेत्रों से अंगार फूटने लगे. इन सभी अंगों से देवी के 64 योगिनी स्वरूप प्रकट हुए और उन सभी की सह शक्तियों ने मिलकर एक अनंत सेना का निर्माण कर लिया. देवी अंबिका ने फिर चंडिका स्वरूप धारण किया और सिंह सवारी कर दानव दल पर टूट पड़ीं.
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10 दिन युद्ध कर किया दुर्गम का वध
दोनों ही सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया. दुर्गम लगातार अपनी मायावी शक्तियों से प्रहार करता, लेकिन योगमाया के सामने उसकी एक नहीं चलती. देवी के शरीर से उत्पन्न उग्र शक्तियां भी सेनाओं का संहार कर रही थीं. काली, तारा, बाला, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, कामाक्षी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता महाविद्या और इनकी सहायक शक्तियों ने भयंकर युद्ध कर सेना को समाप्त कर डाला.
नवें दिन सारी सेना समाप्त हो गई और दसवें दिन केवल रणचंडी और दुर्गम मैदान में बचे रहे. असुर की सारी शक्तियां समाप्त करने के बाद देवी ने त्रिशूल के सहारे उसे उठाया और धरती पर पटक दिया.
तबसे देवी अंबिका को मिला देवी दु्र्गा का नाम
हारे हुए दुर्गम ने जब मस्तक ऊपर उठाया तो उसे अनंत आकाश की ऊंचाई तक भुवन मोहिनी स्वरूप दिखाई दिया, और जब खुद को देखा तो पाया कि वह सागर किनारे पड़ी किसी रेत का लक्षांश भी नहीं है. उसने मन ही मन देवी के कल्याणी स्वरूप को देखने की इच्छा प्रकट की तब देवी ने उसे सूक्ष्म रूप से अष्टभुजा स्वरूप के दर्शन कराए. इसके बाद दुर्गम ने त्रिशुल के घात से निकल रहे रक्त के सहारे प्राण त्याग दिए. असुर का अंत होते ही देवताओं ने त्रिदेवों सहित मां अंबिका की स्तुति की.
इस अवसर पर श्रीहरि ने कहा, इस असुर के वध का कठिन कार्य आपने सिद्ध किया है, इसने भी अंत समय में आपकी निस्वार्थ भक्ति की है, अतः आज से दुर्गमनाशिनी आप देवी दुर्गा नाम से विख्यात होंगीं. संसार आपके इसी अष्टभुजी स्वरूप की वंदना करेगा और स्त्री समाज अपने संबल की प्रेरणा मानेगा. इसके बाद देवता भी एक सुर में बोल पड़े- जय मां दुर्गे, जय भवानी दुर्गे. उन्हें एक बार फिर अभय का वरदान मिल गया था.