नई दिल्लीः सतयुग के वैभव काल में जब मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानता था और अपने जीवन का उद्देश्य समझता था. जीवन सरसता के साथ समय की गति से निर्धारित होता हुआ आगे बढ़ रहा था. उन्हीं दिनों महर्षि कत के वंश कुलश्रेष्ठ कात्यायन का जन्म हुआ.
वेदा-वेदांग के ज्ञान से परिपूर्ण ऋषि कात्यायन की कुटिया अग्निहोत्र से सुगंधित रहती और कई शिष्य उनसे जीवन दर्शन का ज्ञान लेने आते थे. ऋषि पत्नी आश्रम के संचालन में खूब सहयोग करतीं और भगवती का स्मरण करते हुए दंपती जीवन यापन कर रहे थे.
ऋषि को नहीं थी संतान
ऋषि पत्नी थीं तो संतोषी प्रवृत्ति की लेकिन संतान होने से कभी-कभी उनकी मुख कांति मलिन हो जाती थी. ऋषि कात्यायन इस मनोदशा से अपरिचित नहीं थे, लेकिन भगवती की इच्छा मान लेते थे. एक दिन दैवयोग से दंपती संतान के विषय में बात कर रहे थे कि ऋषि पत्नी ने तेजवान पुत्री की कामना की.
ठीक इसी समय दोनों के अतर्मन में भगवती का बिंब उभर आया. इसे ही प्रेरणा मानकार ऋषि कात्यायन वन में चले गए और कठोर तप करने लगे.
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मां भगवती ने दिया पुत्री रूप में अवतरित होने का वरदान
वर्षों धूप-वर्षा और शीत सहकर तपस्या करने से कात्यायन ऋषि कृषकाय हो चले थे, लेकिन उन्होंने संकल्प नहीं छोड़ा. भक्त की ऐसी तल्लीनता और संकल्पशक्ति देख भगवती द्रवित हो उठीं और ज्योति स्वरूप में दर्शन दिए. उनके प्रकट होते ही ऋषि में एक तेज आ गया.
देवी ने उन्हें वरदान मांगने को कहा तो उन्होंने सविनय अपना संकल्प और इच्छा दोहरा दी. प्रसन्न भगवती ने तथास्तु कहा और वरदान दिया कि कुछ समय में जगत कल्याण के निमित्त मैं आपकी पुत्री रूप में जन्म लूंगी और आपके ही नाम से कात्यायनी कहलाऊंगी.
देवी के वचनों को प्रसाद समझ ऋषि आश्रम लौट आए. नियत समय पर आश्रम में किलकारी गूंजी और चारों ओर का वातावरण आनंदित हो गया.
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अब देवी ने शुरू किया अपना अभियान
धीरे-धीरे समय बीतने लगा और शुंभ-निशुंभ के अत्याचार भी बढ़ने लगे. एक दिन उनके भेजे अनुचर ऋषि आश्रम तक पहुंच आए. उन्होंने चारों ओर खूब हाहाकार मचाया और लोगों को प्रताड़ित करने लगे.
देवी इसी अवसर की ताक में थीं कि काल स्वयं शुंभ-निशुंभ को उनतक लेकर आए, इसके साथ ही वह उन्हें अवसर भी देना चाहती थीं कि दोनों अपने राक्षस समाज के साथ अपनी भूल स्वीकार कर लें.
इसके साथ ही भगवती का संकल्प देवताओं को पूर्ण रूप से अभयदान देने का था. इसके लिए आवाश्यक था कि चंड-मुंड, धूम्रविलोचन और रक्तबीज का भी वध हो. इसलिए देवी ने लीला प्रारंभ की. उन्होंने आश्रम में उत्पात मचा रहे राक्षस अनुचरों को डरा कर भगा दिया. वे भागकर अपने सरदार चंड-मुंड के पास पहुंचे.
चंड-मुंड ने सुना देवी का वर्णन
अनुचरों ने भागकर चंड-मुंड को सब वृत्तांत सुनाया. उन्होंने कहा कि सारा ऋषि समाज एक नवयुवती के नेतृत्व में युद्ध लड़ रहा है. उन्होंने ही हमारी यह दशा की है. वह युवती युद्धकला में निपुण है. अकेले ही राक्षसों को पराजित कर दिया. एक कन्या, नवयुवती! चंड ने गुस्से और आश्चर्य से उनकी ओर देखा. मुंड ने प्रश्न किया, कौन है वह युवती. कहां है, नाम क्या है?
अनुचर कोई उत्तर नहीं दे सके. इधर देवी ने अपना परमसुंदरी जगतकल्याणी अम्बा स्वरूप लिया और निकट ही एक वन में जाकर बांसुरी वादन करने लगीं. चंड-मुड इस ध्वनि को सुनकर मोहित होने लगे.
देवी ने चंड-मुंड के सामने रखी शर्त
बांसुरी वादन की आवाज जिस दिशा से आ रही थी. चंड-मुंड दोनों एक ही क्षण में पहुंच गए. अम्बिका गौरी स्वरूप को देखकर मनमोहक सुरों के प्रभाव में वह युद्ध की बात भूल गए और देवी को एकटक ही देखते रहे. अनुचरों ने बताया कि इसी नवयुवती ने उन्हें डराकर वापस भेज दिया था तो चंड देवी की प्रशंसा करने लगा.
अहंकार के मद में कहा कि तुम्हारी वीरता का वर्णन तो हम सुन ही चुके हैं और तुम्हारे रूप और गुण को भी देख चुके हैं. तुम्हारा विवाह तो किसी अविजित से ही होना चाहिए. यह सुनकर देवी के मुख पर एक स्मित मुस्कान तैर गई. उन्होंने कहा-मैंने तो स्वयं ही संकल्प लिया है कि जो मुझे युद्ध में हराएगा उससे विवाह कर लूंगी.
शुंभ-निशुंभ को सुनाया देवी का वृत्तांत
इसके बाद चंड-मुंड, अपने स्वामी शुंभ-निशुंभ के पास पहुंचे. यहां उन्होंने ऋषि आश्रम की सारी घटना कह सुनाई और फिर देवी के स्वरूप का वर्णन करने लगे. उन्होंने आदिशक्ति के भुवनमोहिनी स्वरूप का वर्णन किया और उनकी वीरता औऱ गुणों का बखान भी एक सांस में कर गया.
यह सुनते-सुनते शुंभ के मन में देवी को प्राप्त करने की इच्छा होने लगी. इसके बाद जैसे ही चंड ने युद्ध में हराकर देवी को जीतने वाली चुनौती बताई तो दोनों दैत्य भाइयों का अहंकार जाग उठा.
धूम्रलोचन को दूत बनाकर भेजा
युद्ध की चुनौती सुनकर काल के वश होकर शुंभ ने कहा कि उस एक स्त्री का यह साहस कि हमें चुनौती दे. उसे तो हमारा एक दूत ही खींच लाएगा. यह कहकर शुंभ-निशुंभ ने धूम्रलोचन को दूत बनाकर और विवाह का प्रस्ताव लेकर भेजा. धूम्रलोचन कुछ सैनिकों के साथ देवी की ओर चला.
उसे आदेश था कि वह देवी के सामने प्रस्ताव रखे और साथ ले आए, न माने तो उसे केश पकड़कर घसीटकर यहां लाया जाए. इस दुस्साहसी युवती की रक्षा कर रहे देवों-गन्धर्वों का वध कर देना.
देवी की एक दृष्टि में भस्म हो गया धूम्रलोचन
देवी के सामने पहुंचकर धूम्रलोचन तरह-तरह से शुंभ के बारे में बखान करने लगे. उसे इंद्रजीत बताया और स्वर्ग का अधिपति कहा. असुरों में सबसे महान और सृष्टि का सबसे वीर योद्धा बताने लगा. इसके बाद देवी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो देवी ने कहा कि अपने स्वामी से कहो, पहले मुझे युद्ध में जीत लें, विवाह का विचार तब करेंगे.
यह सुनकर धूम्रलोचन भड़क गया और क्रोधवश कहने लगा कि हे कन्या, मुझे विवश मत कर, अन्यथा तेरे केश पकड़कर ले जाऊंगा, देवी ने अट्टहास करते हुए कहा- मैं अपने संकल्प पर अटल हूं, रे मूर्ख तू यह भी करके देख ले.
धूम्रलोचन जैसे ही आगे बढ़ा और हाथ बढ़ाकर देवी को पकड़ना चाहा, भगवती की ने वक्र दृष्टि से उसकी ओर देखा. उनकी नेत्रों से निकली क्रोधाग्नि में वह दैत्य भस्म हो गया.
बचे हुए सैनिकों ने शुंभ को दी चुनौती
देवी के एक संकेत पर उनका वाहन सिंह आसुरी सेना पर टूट पड़ा और काल बन गया. धूम्रलोचन की सेना इधर-उधर भागने लगी. कई सैनिकों को सिंह ने यमलोक भेज दिया, तो कई बुरी तरह घायल हो गए. अर्धमृत अवस्था में कुछ मुट्ठी भर सैनिक ही बचे जो शुंभ की राजधानी पहुंच सके.
यहां उन्होंने धूम्रलोचन के वध की कथा सुनाई और शुंभ-निशुंभ को सचेत कर देवी की चुनौती देकर प्राण त्याग दिए. अपनी हार और अपमान से दोनों दैत्य और क्रुद्ध हो उठे.