नई दिल्लीः वह पिछले कई घंटों से यूं ही मौन, एक ही मुद्रा में बैठी थी. इतनी अटल कि भवन के कोने की ओर लगातार देख रही उसकी आंखों की पुतलियां भी नहीं घूम रही थीं. किसी सामान्य स्त्री के लिए यह वाकई मुश्किलों भरा हो सकता था, लेकिन वह सामान्य नहीं थी. युवक ने उसमें ऐसा आत्मविश्वास भरा था कि वह दैवीय हो गई थी. इसीका प्रभाव था कि आंखों में दया के भाव थे.
चेहरे पर तेज था और हथेलियां खुद ही वरद हस्त में बदल गई थीं. वह युवक बारीकी से इन सारी भावनाओं को रंगों में घोलता जाता और कागज पर उकेरता जा रहा था. दोनों ही अपने काम में दृढ़ थे. इस दृढ़ता का ऐसा प्रभाव पड़ा कि करीब सवा सौ साल पहने बनीं कागज पर उकेरी वह कृति आज हममें ज्ञान का प्रकाश भर रही है. वह दृढ़ स्त्री थी सुगंधा और वह चितेरा थे राजा रवि वर्मा. बसंत पंचमी के मौके पर पुराण से लेकर आज तक देवी के महात्म्य की बात-
राजा रवि वर्मा ने बनाया है देवी सरस्वती का चित्र
राजा रविवर्मा को भारत का प्राचीन और सबसे उत्कृष्ट चित्रकार माना जाता है. आज देवी-देवताओं के जिन पौराणिक स्वरूपों को हम इतने सहज तरीके से कागज पर जीवंत हुए देखते हैं, इसका पहला प्रयास उन्होंने ही किया था. प्रख्यात चित्र देवी सरस्वती उन्होंने तकरीबन 1896 में बनाया था, लेकिन यह इतना आसान नहीं था. दरअसल रविवर्मा ने देवी के स्वरूप को उभारने के लिए जिस चेहरे व छवि को सामने रखा वह उनकी प्रेयसी सुगंधा का था. सुगंधा पहले इसके लिए तैयार नहीं थीं. उनके लिए देवी का स्वरूप खुद बनना धर्म से इतर होना था, लेकिन रविवर्मा के समझाने पर वह मान गई थीं.
बाधाएं अभी और भी थीं, समाज भी आड़े आया
जब रविवर्मा ने तस्वीरें बना लीं और उन्हें प्रदर्शित किया को समाज ने इसका काफी विरोध किया. दरअसल उस समय केवल मंदिरों में ही देव प्रतिमाओं की स्थापना की अनुमति थी. यह प्रतिमाएं वेद-पुराणों व धार्मिक ग्रंथों में वर्णित संरचना के आधार पर गढ़ी जाती थीं. इनमें सभी प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल तो होता था, लेकिन कोई चेहरा नहीं होता था. कागज पर उकेरे गए चित्र को धार्मिक आधार पर मान्यता नहीं मिल रही थी.
पेंटिंग को लेकर रविवर्मा पर अश्लीलता के भी आरोप लगे. मामला कोर्ट में चला गया. लंबी चली बहस के बाद बांबे हाईकोर्ट ने उन पर लगाए आरोप खारिज कर दिए. लेकिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाकर लोगों ने उनका छापाखाना जला दिया. इसमें रविवर्मा को काफी आर्थिक नुकसान पहुंचा. धीरे-धीरे समय बदला और आज रविवर्मा का बनाया चित्र कलाओं की देवी के तौर पर हर तबके में पूजा जाता है.
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ब्रह्मदेव की सृष्टि को देवी सरस्वती ने दिए स्वर
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की, लेकिन वह प्रसन्न नहीं थे. सृष्टि मौन थी और ब्रह्मा रिक्तता का अनुभव कर रहे थे. इस रिक्तता की प्रेरणा से उन्होंने स्त्री देवी की कल्पना की और उनका सृजन किया. जब देवी ने अपनी वीणा की तान छेड़ी तो झरनों में शोर आया. नदियां कल-कल करने लगीं. पक्षी चहचहाने लगे. यानी सृष्टि रस से भर गई. यह देख ब्रह्मा भी प्रसन्न हुए.
चूंकि देवी के आने से सृष्टि से सरस हुई थी, इसलिए इन्हें सरस्वती का नाम दिया गया. शब्द और नाद की उत्पत्ति को स्वर देने के कारण वह वाणी की देवी भी कहलाईं और श्रुतियों के संकलन के कारण वेदों का ज्ञान भी उन्हीं से प्राप्त हुआ.
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इसलिए बसंत पंचमी को होती है सरस्वती पूजा
ब्रह्मदेव ने जिस पावन दिन देवी की उत्पत्ति की कल्पना की वह समय माघ महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि का था. इसी कारण इस दिन को वसंत पंचमी कहते हैं और देवी सरस्वती की पूजा करते हैं. पंचमी होने के कारण इसे श्री पंचमी भी कहा जाता है. बहुत शुभ तिथि होने के कारण यह दिन अबूझ तिथि कहलाता है. यानि कि इस दिन किसी शुभ कार्य को करने के लिए ग्रह-नक्षत्र का विचार नहीं करना पड़ता है.
गृह प्रवेश, उद्घाटन, विवाह, नामकरण जैसे हिंदू संस्कारों के लिए यह समय शुभ माना जाता है. प्राचीन भारत में यह विद्या आरंभ करने का भी समय होता था.