Valentine Special: एक चिट्ठी उस 'दीवानी' के नाम जिसने तमाम पीढ़ी को इश्क की तमीज सिखाई

माफ करना अमृता, बिना पूछे या जाने ही तुम्हें प्रिय लिख रहा हूं. लेकिन क्या करूं, तुम्हारे बारे में पढ़-पढ़ कर बस इतना ही समझ पाया कि तुम प्रेम की किसी मूरत जैसी ही रही होगी.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Feb 4, 2021, 04:44 PM IST
  • 31 अगस्त 1919 को पाकिस्तान में जन्मीं थीं अमृता प्रीतम
  • अमृता प्रीतम के लिखने में प्रेम भी था और बगावत भी
Valentine Special: एक चिट्ठी उस 'दीवानी' के नाम जिसने तमाम पीढ़ी को इश्क की तमीज सिखाई

नई दिल्लीः जमाना इतना बदल चुका है कि प्यार भरी बातें भी एक इमोजी तक सिमट आईं हैं. फिर कई दफा ऐसा होता है कि मेज की दराज से कभी कोई पुरानी किताब उठाओ तो उनके पन्नों के बीच न जाने कबका रखा हुआ सूखा गुलाब महक उठता है. यादें बड़ी तेजी से उस दौर में ले जाती हैं जो आज के बजाय थोड़ा धीमा होता था. जहां आप और वो हाथ थामें बैठे थे. कभी बारिश बंद होने के इंतजार में सड़क किनारे चाय पीने रुक गए थे. तब वक्त ने किया था क्या हसीं सितम.... यह सब याद आता है तो महंगे फोन और गैजेट्स न जाने क्यों खोखले लगने लगते हैं.

दिल फिर किसी पुरानी चिट्ठी को पढ़ने का करता है. साहिर, अमृता और इमरोज की प्रेम कहानी ऐसी ही है जैसे कि गुलाब की पंखड़ियों में हर्फ उतार दिए गए हों. अमृता प्रीतम को पढ़कर उसके मुरीद हुए कई दीवाने हैं. ऐसे ही एक दीवाने ने अमृता के जन्म के 100 साल बाद उनके लिए चिट्ठी लिखी और अपने जज्बात उतार कर रख दिए. इस वैलेंटाइन पर पढ़िए वही चिट्ठी, अमृता प्रीतमः साहिर और इमरोज का वो कैनवस जिससे सबने इश्क चुराया. 

प्रिय अमृता,

माफ करना, बिना पूछे या जाने ही तुम्हें प्रिय लिख रहा हूं. लेकिन क्या करूं, तुम्हारे बारे में पढ़-पढ़ कर बस इतना ही समझ पाया कि तुम प्रेम की किसी मूरत जैसी ही रही होगी. कोई और जरो-जरिया तो है नहीं तुम तक पहुंचने का इसलिए तुमसे चंद दौर की गुफ्तुगू के लिए तुम्हारा ही तरीका अपना रहा हूं. खतो-खतूत लिखने का तरीका. बहुत सारे खत लिखे हैं न तुमने साहिर को? पढ़े हैं मैंने. नहीं, इसे अपनी निजी जिंदगी में मेरी ताका-झांकी समझकर मुझे जज मत करने लगना. वैसे तुम होती शायद ऐसा ही करती या कहती. सबने तुम्हारी जिंदगी के मौन प्रेम को चुरा लिया और वक्त-बेवक्त अपना बनाने की कोशिश करते रहे.

खैर, कलमबाजों का इश्क होता ही ऐसा है, वे सांस भी लें तो दुनिया उसमें नज्म खोज लेती है, आंसू बहाएं तो गजल, खिलखिला दें तो मसखरी और खामोश हो जाएं तो कोई लंबी दास्तान. तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे होने तक जो रही वो रही, न होने पर शोख दास्तान बन गई. इमरोज और साहिर किरदार की तरह आते-जाते रहे, परदा गिरता रहा, परदा उठता रहा. अब तुम्हारी पैदाइश को भी 100 साल से अधिक गुजर गए हैं. आज भी नेपथ्य में उड़ते खतों के टुकड़े जब हौले से जमीन पर गिरते हैं तो हल्के सुर में आवाज आती है, तुम्हारी अमृता...

वह साल 2012 का था. मलमली कंबल में लिपटी फरवरी कुछ शोख हो चली थी. इसी के चौदहवें रोज की एक शाम मैंने तुम्हारे खतों से तुम्हारी आवाज सुनी. मोहब्बत की मेहराबों के इर्द-गिर्द मंच सजा था. परदा उठा और तेज रोशनी से एक कोना चमक उठा. इसी रोशनी में एक चेहरा आकार लेने लगा. थोड़े लंबे बाल आगे की ओर लहराते, आंखों पर चश्मा, ऊंची नाक और उजला रंग. साधारण कुर्ते-पायजामे में वह शख्स बेहद संजीदा सा दिख रहा था. इसके बाद दूसरे कोने में भी रोशनी चमकी.

हवा की सररहाहट के साथ आवारगी करते बालों को उंगलियों के पोरों ने बड़ी नरमी से अदब में रहने को कहा. जुल्फों के बादल हटने के साथ ही दो कमल जैसे होंठ हिले और उससे निकली आवाज में तुम्हारे नाम का अल्फाज संगसार दिल को चश्मे की तरह बहाता चला गया. उस शाम फारुख शेख और शबाना आजमी की आवाज में तुम्हारे मन की कई परतें मेरे मन के साथ मिलती चली गईं. उस रोज मैं सिर्फ तुमसे रूबरू ही नहीं हुआ था अमृता, तुममें डूब सा गया था.

उस शाम पहली दफा ये ख्याल आया

उस शाम पहली दफा यह खयाल आया कि ये दुनिया-जहान वालों ने क्यों किसी फकीर वैलेंटाइन के नाम पर प्यार का दिन मुकर्रर कर रखा है. उन्हें चाहिए कि वे तुम्हारे दिन को प्यार के नाम कर दें. लेकिन, वे तुम्हें किसी दिन में बांध कहां पाएंगें. तुम आजाद थी अमृता. इतनी आजाद की जितनी आजादी बस किताबों के पन्नों में अच्छी लगती है, क्योंकि वे भी तो जिल्द और दस्ती की कैद में होती हैं.

तुमसे इश्क के तजुर्बे लेकर कितनों ने अपनी माशूकाओं से मोहब्बत की. मोहब्बत असल रही हो या झूठ, लेकिन तुम्हारी मौजूदगी हर जगह रही. डायरी में रखे फूल तुम्हारे नाम से महकते रहे, चादरों की सलवटों में तुम्हारे तजुर्बों की करवटें पड़ती रहीं और किसी की मेज पर रखा जूठा कप सदियों तक गंदा होता रहा. सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए अमृता. सिर्फ तुम्हारे लिए.

याद है अमृता, आखिरी दफा जब तुम साहिर से मिलने गई थीं. उस दिन तुम दोनों ने गर्म चाय के कुछ घूंट लिए और फिर ठंडी खामोशी के साथ बैठे रहे थे. तुम्हारे जाने के बाद साहिर ने उस कप को धोया नहीं, अपनी जगह से हिलाया तक नहीं. वह यूं ही उस लिखने वाली मेज पर उसी जगह रखा रहा, जहां तुमने उसे छोड़ा था. या यूं कहो, साहिर की टेबल पर उस कप की अलग ही दुनिया बस गई थी.

वह किसी जमीन पर बने किसी मुल्क जैसा था या फिर आसमान में किसी सितारे की तरह जड़ गया था. फिर एकदिन जयदेव किसी सिलसिले में साहिर से मिलने पहुंचे. काफी गीतों-नज्मों की लंबी बातचीत के बाद उन्होंने अपने चाय के प्याले उठाए और उस कप को भी धो लेने की पेशकश की. सुर्ख चेहरा लिए साहिर ने धमकाती सी आवाज में कहा. उसे छूना भी मत, अमृता ने उसमें आखिरी बार चाय पी थी. यह किस्सा पढ़कर हर आशिक को साहिर से जलन हो जाए. 

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ऐसे लगी सिगरेट की लत

 

तुम्हारा खुद का भी तो यही हाल था न. तुम्हें सिगरेट की लत भी तो इसी इश्क से लगी थी. पढ़ा है मैंने रसीदी टिकट में तुम्हारा यह कुबूलनामा. साहिर चुपचाप तुम्हारे कमरे में सिगरेट पिया करता था. आधी सिगरेट बुझाकर फिर वह दूसरी जला लेता था. उसके जाने के बाद तुम सिगरेट के बटों को बटोर लिया करती थी और दोबारा सुलगाकर उन्हें पीते हुए साहिर की छुअन को महसूस करने की कोशिश करती थी.

वैसे इमरोज ने भी तुम्हे कम महसूस नहीं किया अमृता. कूचियों से अहसासों के रंग भरने वाले उस शख्स को कई दफा खुदा जैसा मानने का दिल करता है. लिखी हुई दास्तानों को पढ़कर तो ऐसा ही लगता है. कहीं पढ़ा था कि इमरोज तुम्हारे लिखने की काफी तारीफ करते थे.

एक दफा बोले कि अमृता हमेशा कुछ न कुछ लिखा ही करती हैं. उनके हाथ में कलम हो या न हो, उनका लिखना कभी बंद नहीं होता. कई बार उन्होंने मेरे पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. अब वे उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं, क्या फर्क पड़ता है. मैं भी तो उन्हें चाहता हूं.

तुम्हारे उंगलियों की कसमसाहट को मैं भी समझता हूं अमृता, बल्कि मैंने तो तुम्हारे हर लिखे में तुम्हारे मन की कसक देखी है. गुजरांवाला (पाकिस्तान) की पैदाइश वह छोटी खिलखिलाती बच्ची कब बड़ी हो गई, लिखने लगी, गाने लगी उसे भी पता न चला. यह सब तो चल ही रहा था, फिर एक दिन बंटवारा हो गया. लाशों के बीच जमीन तलाशते तुम भारत पहुंची और कागज के टुकड़ों पर कविता लिखी.

तुम्हारा दर्द पन्ने पर अक्स पा गया और उस पर गढ़े अल्फाज लाखों-करोड़ों मजलूमों की आवाज बने. सिर्फ तुम्हारा इश्क ही नहीं तुम्हारे आंसू भी मन को दरिया-ए-चिनाब के किनारे ले जाते हैं. जिसकी लहरों मे तुम्हारी कहानियां गीत बनकर गूंजती हैं. 

इन सौ सालों में सब कुछ बदल गया है अमृता. अब वो इश्कबाज न रहे और नहीं रहे अधूरे इश्क के साथ जिंदगी बिताने वाले, लेकिन अब भी दिलों में खूब नीचे परतों के बीच कहीं अहसास दबे हैं. जो किसी अजीज की छुअन पर जाग जाते हैं. उनसे केवल एक ही आवाज आती है. तुम्हारी अमृता हां.. तुम्हारी अमृता...

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