नई दिल्लीः एक तरफ समुद्र की उठती लहरों को बांधकर पुल बनाया जा रहा था तो दूसरी ओर श्रीराम अपने ईष्ट महादेव की विशेष पूजा में जुटे हुए थे. श्रीराम ने शिवलिंग की स्थापना कर उसकी प्रतिष्ठा की थी. जैसे ही सागर पर पुल बनाने का कार्य पूरा हुआ, श्रीराम के रुद्राभिषेक की भी पूर्णाहुति हुई. उन्होंने महादेव से प्रार्थना की, हे आशुतोष भगवान शिव, मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप अपने प्रतीक इस लिंग को मान्यता दें और लंका विजय का मेरा अनुष्ठान पूरा करें.
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इस पूरे अभिषेक को ध्यान से देख रहे वीर हनुमान ने अचानक ही कहा- हे प्रभु, भगवान शिव के इस महिमामयी लिंग को नाम भी प्रदान कीजिए ताकि संसार इनके स्मरण का लाभ ले सके. तब श्रीराम ने कहा कि महादेव का यह स्वरूप आज से रामेश्वरम कहलाएगा. रामेश्वरम यानी जो राम का ईश्वर है. वहीं कैलाश पर बैठे महादेव देवी पार्वती से इसकी व्याख्या इस रूप में करते हैं कि रामेश्वरम् यानी राम जिसके ईश्वर हैं.
शैव और वैष्णव के बीच विरोध?
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रामायण और रामचरित मानस के पन्नों के बीच से निकला यह कथा प्रसंग युगों पुरानी चली आ रही शैव और वैष्णव परंपरा के बीच जुड़ाव को साबित करता है. दरअसल बीते एक हजार साल का इतिहास देखें तो वह हमारे देश पर आक्रमणों का रहा है. इसका असर यह हुआ कि हम आज अपनी ही सनातनी परंपरा को लेकर आधे-अधूरे ज्ञान में हैं. शैव और वैष्णव मत को लेकर ऐसी ही भ्रांतियां हैं. कई इतिहासकारों ने इन दोनों मतों को एक-दूसरे का धुर विरोधी बताया है. विरोध भी इतने गाढ़े स्तर का कई जगहों पर ऐसा लगने लगता है कि शैव और वैष्णव एक-दूसरे पर हमलावर हो गए और अस्तित्व मिटा देने पर उतारू हो गए, जबकि असल में ऐसा नहीं है. वेद और पुराणों में इस स्तर का विरोध मिलता भी नहीं है.
महावीर हनुमानः विरोध के बीच एकता की कड़ी
हालांकि मान्यताओं को लेकर मतभेद जरूर रहे हैं, जो कि सहज और प्राकृतिक है. दक्ष प्रजापति वैष्णव थे और उनका शिव से विरोध शैव और वैष्णव मत के विचारों में अलगाव की हवा देता है. घटनाक्रमों के बीच में ऐसी भी घटनाएं मौजूद हैं कि जो कि यह बताती हैं कि यह दोनों ही मत एक-दूसरे के पूरक थे और प्रकृति में संतुलन बनाए रखने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन कर रहे थे. शैव और वैष्णव के बीच एकता की कड़ी के रूप में सबसे बड़ा नाम महावीर हनुमान का आता है.
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ऐसे हुआ महावीर का जन्म
भक्ति शिरोमणि हनुमान के जन्म को लेकर कई कथाएं हैं. इनमें एक कथा समु्द्र मंथन के बीच से निकलती है. कहते हैं कि जब श्रीहरि विष्णु देवताओं और असुरों को मोहिनी स्वरूप में अमृत पिला रहे थे तब उनका सौंदर्य तीनों लोकों को चकित और मोहित कर रहा था. उनके रूप सौंदर्य को देखकर महादेव का वीर्यपात हो गया. इसी दौरान पवन देव ने अपने वेग से इस महादेव के तेज को वानरराज केसरी की पत्नी अंजना के शरीर में प्रवेश कर दिया. इस तरह रुद्र के अंश से और पवन से रक्षा किए जाने और केसरीराज के घर वीर हनुमान का जन्म हुआ. इन तीनों के ही कारण वीर हनुमान रुद्रांश, पवन पुत्र और केसरी नंदन कहलाते हैं.
श्रीराम की भक्ति, वैष्णव शाखा से संबंध
इस तरह रुद्र का अंश महान विष्णु भक्त अंजना के घर में जन्मा. यह घटना भी प्रारंभिक तौर पर दोनों मतों के बीच समानता का परिचय देती है. जैसे-जैसे हनुमान जी बड़े होते गए विष्णुमार्गी शाखा में उनकी रुचि बढ़ती गई . अंजना माता ने उन्हें भगवान के सभी अवतारों की कथा सुनाई जो उस समय तक हुए थे. मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन और परशुराम से परिचित कराया. फिर शिवांश ने महादेव के बारे में पूछा तो वानर राज केसरी ने उन्हें एकादश रुद्र की जानकारी दी. जहां एक तरफ अंजना वैष्णव वंशी थे वहीं वानरराज केसरी महादेव के भक्त थे. यह संयोग भी सिद्ध करता है कि शैव और वैष्णव अलग-अलग जरूर थे लेकिन इस स्तर के विरोधी कभी नहीं थे कि एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाएं. पवन देव ने प्रारंभिक शिक्षा देकर मारुति नाम दिया और भगवान सूर्य ने सभी वेद-वेदांग, छह शास्त्र, परा-अपरा शक्ति, बल-अतिबल और गूढ़ विद्याओं का रहस्य बताता. ज्ञान के इस स्त्रोत ने महावीर को बल के साथ-साथ बुद्धि और चतुराई भी प्रदान की.
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रुद्र का अवतार, विष्णु अवतारी का साथी
तुलसी दास जी हनुमान चालीसा में लिखते हैं कि 'रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई' यानी श्रीराम हनुमान को अपने प्रिय भाई भरत के समान ही प्रेम करते हैं. दो अलग-अलग विचारधाराओं में एकता का इससे बड़ा परिचायक और क्या होगा. इसके अलावा भी कई ऐसे प्रसंग हैं जहां महादेव और महाविष्णु के बीच का मैत्रीभाव श्रीराम और महावीर हनुमान के रूप में झलकता है. सीता माता का पता लगाकर आए हनुमान से भावुक श्रीराम एक पति के रूप में कहते हैं कि तुम मेरी स्तुति करने के लिए अपनी आंखें न बंद करो हनुमान, मैं उनमें अपनी सीता को देख पा रहा हूं. फिर जब वह प्रेम वश उन्हें गले लगाते हैं तो मानस में लिखे शब्दों के अनुसार इस भाव को भोलेनाथ भी महसूस कर पाते हैं.
जब श्रीराम ने कहा, हम-तुम एक ही हैं हनुमान
एकता की इस मिसाल का उदाहरण एक दंत कथा में भी मिलता है. एक बार अयोध्या में सहभोज का आयोजन हुआ. श्रीराम अपने भाइयों के साथ भोजन के लिए बैठे थे. उन्होंने पास ही खड़े हनुमान जी से कहा कि आओ महावीर मेरे साथ भोजन करो. इस पर हनुमान जी ने कहा- मैं तो आपका सेवक हूं. श्रीराम ने एक बार और जोर दिया तो हनुमान जी बैठ तो गए, लेकिन इस बार केले का पत्ता कम पड़ गया. तब श्रीराम ने अपने ही पत्ते पर अंगुली से बीच में लकीर खींच दीं और कहा कि लो, अब तुम्हारा संकोच भी दूर हो गया और तुम्हारे साथ भोजन की मेरी इच्छा भी पूरी हो गई. कहते हैं कि तभी से केले के पत्ते पर बीच में गाढ़ी लकीर दिखती है. जिसके एक हिस्से को वीर हनुमान का तो दूसरे हिस्से को श्रीराम का प्रतीक माना जाता है. केले के पत्ते पर साथ भोजन करना मित्रता प्रगाढ़ करने का प्रतीक है.
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मुक्ति के ही मार्ग हैं शैव और वैष्णव
इस तरह शैव और वैष्णव मत के प्रचलित विरोध की कथाओं के बीच महावीर हनुमान का विराट स्वरूप सामने खड़ा हो जाता है जो कहता है कि धर्म और आस्था के स्वरूप भिन्न हो सकते हैं, लेकिन उनका मर्म अलग नहीं हो सकता है. जो हनुमान को पा लेता है वहीं राम को पा लेता है, जो राम को पा लेता है वह शिव का हो जाता है और शिव को पा लेना वाला मोक्ष पा लेता है. वह मुक्त हो जाता है, हर तरह के मत और विरोध से मुक्त..
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