नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के सीनियर मोस्ट जज और नामित सीजेआई जस्टिस उदय उमेश ललित 27 अगस्त को देश के 49वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेंगे. वे वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमन्ना की जगह लेंगे. 27 अगस्त को शपथ लेने के पश्चात जस्टिस उदय उमेश ललित का कार्यकाल 8 नवंबर तक 74 दिन का होगा. सीजेआई के रूप में जस्टिस ललित उस कॉलेजियम का नेतृत्व करेंगे जिसमें जस्टिस चंद्रचूड़ जस्टिस कौल जस्टिस नजीर और जस्टिस इंदिरा बनर्जी शामिल होंगे.
यूं तो जस्टिस ललित को नालसा के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन के रूप में देश में राष्ट्रीय लोक अदालत की सफलता के लिए एक प्रेरणा स्रोत माना जाता है. एक वकील के तौर पर जस्टिस यूयू ललित कई महत्वपूर्ण मामलों में पैरवी कर चुके हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में कई ऐतिहासिक फैसले के गवाह भी रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट इन 6 फैसलों में जस्टिस उदय उमेश ललित की अहम भूमिका रही है. इन फैसलों के जरिए देश के 49वें मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यू यू ललित को जानते हैं.
1). तीन तलाक को किया असंवैधानिक घोषित
देश के सबसे जटिल मुद्दों में से एक तीन तलाक के मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक पीठ का गठन किया था. इस पीठ ने 22 अगस्त 2017 को अपना फैसला सुनाते हुए इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया. तत्कालीन सीजेआई जे एस खेहर के साथ जस्टिस यू यू ललित भी इस बेंच के सदस्य के रूप में शामिल थे.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में 3 जजों ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया था. वहीं तत्कालिन सीजेआई खेहर और जस्टिस अब्दुल नज़ीर ने इसे एक धार्मिक प्रेक्टिस बताते हुए दखल देने से इंकार किया था.
पीठ में शामिल जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस नरीमन और जस्टिस यूयू ललित ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया था. तीन सदस्यों ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं मुस्लिम महिलाओं के मूलभूत अधिकारों का हनन करता है और यह प्रथा बिना कोई मौका दिए शादी समाप्त कर देते हैं.
2). एससी एसटी एक्ट में बड़ा बदलाव, विरोध प्रदर्शन में मारे गए 9 लोग
21 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने एससी एसटी एक्ट को लेकर फैसला सुनाते हुए ऐसे मामलो में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी और मामला दर्ज से पहले शुरुआती जांच करने का आदेश दिया.
जस्टिस ए के गोयल और जस्टिस यूयू ललित की बेंच ने फैसले में कहा था कि शुरुआती जांच 7 दिन के भीतर पूरी हो जानी चाहिए. इसके साथ कोर्ट ने अपने फैसले में सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अधिकारी की इजाजत के बाद ही करने का भी प्रावधान दिया.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के विरोध में देशभर में दलितों ने जमकर प्रदर्शन किए, जिसके चलते कई जगह पर हिंसा भड़क उठी. इस फैसले के बाद हुई हिंसा में देशभर में 9 लोग मारे गए.
केन्द्र सरकार ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को बड़ा झटका देते हुए पुनर्विचार याचिका को भी खारिज कर दिया.
दलित समुदाय की बढ़ती नाराजगी को देखते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरुद्ध जाते हुए एससी एसटी एक्ट को पुराने और मूल स्वरूप में लाने का फैसला किया. केन्द्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए इस फैसले को पलट दिया और एससी एसटी एक्ट कानून के पुराने प्रावधान लागू किए.
3). आईपीसी की धारा 498ए में गिरफ्तारी पर रोक
जुलाई 2017 में जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस यूयू ललित की दो जजों की बेंच ने महिलाओं के लिए बने दहेज निरोधक कानून मामलों में तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. इस फैसले के अनुसार दहेज प्रताड़ना के मामलो में पति या ससुराल वालों की तुरंत गिरफ्तारी नहीं हो सकती थी.
दहेज को लेकर प्रताड़ित महिलाओं की सुरक्षा के 1983 में आईपीसी की धारा 498ए में कई प्रावधान किए गए. जिन्हें दहेज निरोधक कानून कहा गया. इस कानून के तहत अगर किसी महिला को दहेज के लिए मानसिक, शारीरिक या फिर किसी अन्य तरह से प्रताड़ित किया जाता है तो महिला की शिकायत पर मामला दर्ज होता है, जिसे गैर जमानती अपराध मानते हुए संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा गया.
इस कानून के तहत ससुराल में प्रताड़ित करने के लिए ससुराल पक्ष के अधिकांश लोगो को आरोपी बनाया जा सकता था और उनके लिए 3 साल की सजा का प्रावधान किया गया.
जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस उदय उमेश ललित की बेंच ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए इसके तहत तत्काल होने वाली गिरफ्तारियों पर रोक लगा दी. बैंच ने अपने फैसले के पक्ष में एनसीआरबी के वर्ष 2012 आकड़ों को आधार बनाया था.
एनसीआरबी के 2012 के आकड़ो के अनुसार जिन मामलों में आईपीसी की धारा 498ए का इस्तेमाल हुआ था ऐसे मामलों के 93.3 प्रतिशत मुकदमों में चार्जशीट पेश की गयी थी. लेकिन सिर्फ 14.4 प्रतिशत मामलों में ही दोषियों का अपराध साबित हो पाया था.
ये अलग बात है कि इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत कम मामलों में दोषी साबित होने के लिए जांच एजेंसियों पर कोई सवाल खड़ा नही किया था.
14 सितंबर 2018 को तत्कालिन सीजेआई दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में 3 सदस्य पीठ ने पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा के लिए आरोपियों की गिरफतारी को जरूरी बताते हुए इस फैसले को पलट दिया.
4). तलाक के लिए 6 माह की कानूनी अड़चन को किया समाप्त
जस्टिस आदर्शकुमार गोयल और जस्टिय उदय उमेश ललित की पीठ ने 12 सितंबर 2017 को एक ओर महत्वपूर्ण फैसला देते हुए तलाक के मामलो में 6 माह की कानूनी अड़चन को समाप्त कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर परिस्थितियां खास हो, तो तलाक के लिए 6 महीने का इंतजार अनिवार्य नहीं है. कोर्ट ने हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी 2 को अनिवार्य मानने से इंकार कर दिया.
इसी धारा 13 बी 2 में मोशन का प्रावधान किया गया है. जो कि इंतजार के लिए 6 माह की अवधि का प्रावधान करता है. इस धारा के तहत ये प्रावधान है कि रजामंदी से तलाक के मामले में पहले मोशन और आखिरी मोशन में 6 महीने का वक्त दिया जाना आवश्यक है.
यानी तलाक की अर्जी दाखिल करने के 6 माह बाद ही इस पर दूसरी सुनवाई होगी. कानून में इस अवधि का प्रावधान इसलिए किया गया है ताकि पति पत्नी में सुलह की कोई गुंजाइश बची हो तो अदालत उसके लिए प्रयास कर सके.
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उन चार परिस्थितियों को भी स्पष्ट कर दिया जिनमें तलाक का आदेश बिना इंतजार किए किया जा सकता है.
1- तलाक की अर्जी लगाने के डेढ़ साल से ज्यादा समय से पति पत्नी अलग रह रहे हो.
2- दोनों में सुलह या समझौते के सभी विकल्प समाप्त हो चुके हो.
3- दोनों पक्ष पत्नी का गुजारा भत्ते का स्थाई बंदोबस्त, बच्चों की कस्टडी सहित सभी मुद्दो का हल कर चुके हो.
4- 6 महीने का इंतजार दोनो की परेशानी को ओर बढाने वाला नज़र आए.
5). केरल के पद्यनास्वामी मंदिर पर त्रावणकोर राजपरिवार का अधिकार
जस्टिस यू यू ललित की अध्यक्षता वाली पीठ ने ही 13 जुलाई 2020 को एक महत्वपूर्ण फैसले में पद्यनास्वामी मंदिर पर त्रावणकोर शाही परिवार का अधिकार मानते हुए केरल हाईकोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया था.
केरल हाईकोर्ट ने 31 जनवरी 2011 को आदेश देते हुए राज्य सरकार को इस मंदिर का नियंत्रण अपने अधीन लेते हुए न्याय गठित करने को कहा था. जिसके खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पद्मनाभस्वामी मंदिर के प्रशासन पर फिर से त्रावणकोर शाही परिवार के अधिकार को स्वीकार किया.
6). विवावित स्किन टू स्किन टच फैसले के खिलाफ फैसला
जस्टिस उदय उमेश ललित की अध्यक्षता वाली बेंच ने बॉम्बे हाईकोर्ट के विवादित फैसले को पलट दिया था जिसमें कहा गया था कि यौन उत्पीड़न के लिए स्किन टू स्किन टच होना जरूरी है. 18 नवंबर 2021 को फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा है कि पॉक्सो एक्ट में स्किन टू स्किन टच जरूरी नहीं है.
जस्टिस यू यू ललित ने इस फैसले में कहा कि यौन उत्पीड़न का सबसे महत्वपूर्ण घटक यौन इरादा है, न कि बच्चे के साथ स्किन-टू-स्किन कांटेक्ट. जस्टिस ललित ने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता है कि यौन उत्पीड़न की मंशा से कपड़े के ऊपर से बच्चे के संवेदनशील अंगों को छूना यौन शोषण नहीं है. अगर ऐसा कहा जाएगा तो बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए पॉक्सो एक्ट की गंभीरता खत्म हो जाएगी.
गौरतलब है बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने यौन शोषण के के एक आरोपी को यह कहते हुए बरी कर दिया था कि अगर आरोपी और पीड़िता के बीच कोई सीधा स्किन टू स्किन टच नहीं हुआ है तो ये पोक्सो के तहत अपराध नहीं बनता है. इस फैसले को देशभर में पॉक्सो कानून को कमजोर करने के रूप में देखा गया, जिसकी आलोचना भी हुई.
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