नई दिल्ली: 'जीना यहां मरना यहां', 'किसी की मुस्कुराहटों पर हो निसार', 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल', 'चांद सी महबूबा हो मेरी', इन गानों को देखकर आप समझ ही गए होंगे कि यहां आज हम पाश्र्व गायक मुकेश की बात कर रहे हैं. मुकेश की गायिकी की एक खास बात रही है कि उन्होंने संगीत की बहुत ज्यादा ट्रेनिंग नहीं ली, लेकिन मुश्किल से मुश्किल गानों को अपनी मधुर आवाज में बहुत सहजता से पेश किया. उनके गाने सीधे दिल को छू जाते थे और आज भी लोगों की जुबां पर चढ़े रहते हैं.
बचपन से गाने के शौकीन थे मुकेश
22 जुलाई 1923 को लाला जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर जन्में मुकेश अपने माता-पिता की 10 संतानों में से 7वें बेटे थे. कहते हैं कि मुकेश ने अपनी बड़ी बहन और कुछ दिग्गजों के गीतों को सुन-सुनकर ही संगीत सीख लिया था. बचपन से ही उन्हें गाने का शौक था, वहीं, मुकेश की सुरीली आवाज ने उनके इस शौक को करियर में बदल दिया.
बारातियों का मनोरंजन करने के दौरे खुला किस्मत का द्वार
कहा जाता है कि संगीत की दुनिया में नाम कमाने के रास्ते मुकेश के लिए उनकी बहन की शादी से खुले. दरअसल, मुकेश की बहन का विवाह था और ससुराल पक्ष के रिश्तेदार होने के नाते अभिनेता मोतीलाल अपने एक निर्माता दोस्त और अभिनेता तारा हरीश के साथ इस शादी में शरीक होने के लिए पहुंचे थे. यहां बारातियों का मनोरंजन करने के लिए मुकेश को गीत सुनाने को खड़ा किया गया.
मुकेश ने ऐसा चलाया आवाज का जादू
मुकेश ने अपनी सुरीली आवाज का ऐसा जादू चलाया कि मोतीलाल और तारा हरीश देखते ही रह गए. इसके कुछ वक्त बाद एक दिन मुकेश को मोतीलाल का खत मिला कि मुंबई आ जाओ. तब वह दिल्ली में PCWD में सर्वेयर की नौकरी कर रहे थे, लेकिन खत मिलते ही वह इतने खुश थे कि तुरंत मुंबई जाने के लिए तैयार हो गए. पिताजी को बेशक यह सब पसंद नहीं आया, लेकिन किसी तरह मुकेश ने उन्हे भी मना लिया और नौकरी छोड़कर मुंबई पहुंच गए.
टूट गया एक्टर बनने का सपना
कहते हैं कि मोतीलाल ने ही मुकेश को मुंबई में अपने घर पर जगह दी, साथ ही उन्होंने संगीत की शिक्षा हासिल करने में भी उनकी मदद की. हालांकि, मुकेश का सपना था कि वह फिल्मों में अभिनेता के तौर पर काम करें. इसके बाद उन्होंने 1941 में रिलीज हुई फिल्म 'निर्दोष' से बतौर अभिनेता अपने करियर की शुरुआत भी की, लेकिन फिल्म को पसंद नहीं किया गया. इसी के साथ मुकेश का अभिनेता बनने का सपना भी टूट गया.
1945 से मिली सफलता
1945 में आई फिल्म 'नजर' में उन्होंने प्लेबैक सिंगर के तौर पर काम किया. उन्होंने पहला गाना 'दिल जलता है तो जलने दो' गाया था, जिसे इतना पसंद किया गया कि देशभर में सिर्फ मुकेश के इस गाने की गूंज सुनाई देने लगी और देखते ही देखते वह दुनियाभर में छा गए.
संगीत को भगवान की तरह पूजते थे मुकेश
मुकेश के संगीत को जीतना पसंद किया जाता है, एक्टर खुद भी अपने संगीत को उतना ही प्यार करते थे. कहते हैं कि वह संगीत को भगवान की तरह पूजते थे. जब भी उनके किसी गाने की रिकॉर्डिंग होती, उस दिन वह उपवास रख लिया करते थे और पूरा दिन सिर्फ पानी और गर्म दूध पर बिता देते थे. उनका मानना था कि संगीत के साथ पूरा न्याय होना चाहिए, सुरो के साथ किसी भी वजह से कोई गड़बड़ न हो.
राज कपूर ने कहा था- 'मेरी आवाज ही चली गई'
मुकेश के गानों को सुनकर आज भी एक अजीब सा सुकून मिलता है. उन्होंने खासतौर पर राज कपूर के लिए काफी गीत गाए. एक वक्त था जब मुकेश को उनकी आवाज कहा जाने लगा था. ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ और ‘आवारा हूं’ जैसे बेहतरीन गाने गाकर दुनियाभर में मशहूर हो गए. वहीं, राज कपूर कहते थे कि मुकेश उनकी सिर्फ आवाज ही नहीं, बल्कि उनकी आत्मा हैं. जब मुकेश का जब निधन तब राज कपूर ने रुंधे गले से कहा था, 'मेरी तो आवाज ही चली गई.'
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