नई दिल्ली. दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक के लिए 1983 राजनीतिक बदलाव का साल था. 1947 में देश की आजादी के बाद पहली बार कर्नाटक में ऐसा हो रहा था कि कांग्रेस अपना मुख्यमंत्री बनाने में नाकामयाब रह गई थी. इमरजेंसी के दौर से देश की राजनीति में चली गैर-कांग्रेसवाद की हवा ने कर्नाटक में असर दिखाया था. समाजवादी मूल्यों वाली जनता पार्टी ने राज्य की 224 सदस्यीय विधानसभा में 95 सीटें हासिल की थीं. वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. वहीं कांग्रेस 82 सीटों पर सिमटकर रह गई थी. जबकि ठीक पांच साल यानी 1978 में हुए चुनाव में कांग्रेस ने 149 सीटें हासिल की थीं.
शक्तिशाली लिंगायत और वोक्कालिग्गा के बीच कैसे मिली जिम्मेदारी?
खैर कांग्रेस को जनता पार्टी ने पीछे धकेल दिया था लेकिन सरकार बनाने के लिए 113 का जादुई आंकड़ा अब भी उससे काफी दूर था. कर्नाटक की राजनीति में दो समुदायों का राजनीतिक वर्चस्व रहता है. पहला है लिंगायत और दूसरा है वोक्कालिग्गा. अब चूंकि जनता पार्टी बहुमत के आंकड़े से दूर थी इसलिए इन दोनों ही समुदायों के नेताओं की रस्साकशी के बीच एक ऐसे नेता को मौका मिला जो ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखता था. ये नेता थे रामकृष्ण महाबलेश्वर हेगड़े. कर्नाटक की राजनीति के सबसे बेहतरीन वक्ताओं में शुमार किए जाने वाले हेगड़े राज्य में बेहद लोकप्रिय थे.
बेहद लोकप्रिय थे रामकृष्ण हेगड़े
यह हेगड़े की लोकप्रियता ही थी कि उन्हें समर्थन देने के लिए भारतीय जनता पार्टी और लेफ्ट पार्टियों ने भी समर्थन दिया और सरकार बनाने में मदद की. 1926 में उत्तर कन्नड में पैदा हुए रामकृष्ण हेगडे का ताल्लुक हव्यक ब्राह्मण परिवार से था. कहा जाता है कि हव्यक ब्राह्मण मूल रूप से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के रहने वाले थे और बाद में कर्नाटक में जा बसे. हेगड़े ने अपनी पढ़ाई भी बनारस के काशी विद्यापीठ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की थी. वह पेशे से वकील थे और आजादी के पहले ही कांग्रेस के सदस्य के रूप में भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था.
राजनीतिक जीवन
1954 में हेगडे़ को उत्तर कन्नड जिले की कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया था. उन्होंने जल्द तरक्की की 1958 में मैसूर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव बनाए गए. बता दें कि 1973 से पहले कर्नाटक का नाम मैसूर स्टेट था. एस. निजलिंगप्पा और वीरेंद्र पाटिल जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेताओं से उन्होंने हेगड़े ने प्रशासनिक गुण सीखे.
कांग्रेस से मतभेद
बाद में जब कांग्रेस में इंदिरा गांधी से पार्टी के पुराने नेताओं का मतभेद हुआ और पार्टी टूटी तो हेगेड़े अपने गुरु एस. निजलिंगप्पा के पक्ष में गए. यहीं से रामकृष्ण हेगड़े का नाता कांग्रेसी राजनीति से टूटा और उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का झंडा बुलंद किया. कांग्रेस के इसी गुट के नेताओं ने बाद में जनता पार्टी की कमान भी संभाली.
जब संभाली सीएम की कुर्सी
हेगड़े 1983 से 1988 तक कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे. राज्य में अपेक्षाकृत संख्याबल में कमजोर समुदाय से ताल्लुक रखने के बावजूद हेगड़े बेहद पॉपुलर थे. उन्हीं के शासनकाल में राज्य में 1984 में प्रशासनिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए लोकायुक्त बिल पेश किया गया था. यही नहीं हेगड़े के पास राज्य विधानसभा में 13 बार बजट पेश करने का भी अनुभव रहा.
1989 में हेगड़े जनता दल में शामिल हो गए थे. 1989 में बनी विश्ननाथ प्रताप सिंह की सरकार में योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी बने. 1996 में हेगड़े जनता दल से बाहर निकाल दिया गया था. इसके पीछे की वजह उनकी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के साथ राजनीतिक रस्साकशी थी. फिर 1998 के लोकसभा चुनाव में हेगड़े ने अपनी पार्टी लोकशक्ति बनाई और बीजेपी के साथ मिलकर राज्य में जबरदस्त सफलता हासिल की. हेगड़े की मृत्यु लंबी बीमारी के बाद साल 2004 में हुई थी.
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