उत्तर प्रदेश में पुल बनने की शुरुआत 19वीं शताब्दी में हुई थी, जब ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र में अपना शासन स्थापित किया था. उस समय, उत्तर प्रदेश में कई नदियाँ और जलस्रोत थे, जो आवागमन और व्यापार के लिए बड़ी चुनौती पेश करते थे
आधिकारिक तौर पर उत्तर प्रदेश में पुल बनने की शुरुआत कानपुर से हुई थी, जहां 1865 में पहला पुल बनाया गया था. यह पुल गंगा नदी पर बनाया गया था और इसका नाम "ओल्ड नैनी ब्रिज" था. जबकि पहला ब्रिज जो बनाया गया था उसका नाम बैस ब्रिज रखा गया था.
इसके बाद, उत्तर प्रदेश में कई अन्य पुल बनाए गए, जिनमें से कुछ प्रमुख पुल हैं- नैनी ब्रिज (इलाहाबाद, 1865),बेवर ब्रिज (कानपुर, 1865),बैस ब्रिज (इलाहाबाद, 1881), मालवीय ब्रिज (वाराणसी, 1887). इन पुलों के निर्माण से उत्तर प्रदेश में आवागमन और व्यापार को बढ़ावा मिला, और यह क्षेत्र आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए तैयार हुआ
क्या आप यूपी के ऐसे पुल के बारे में जानते हैं जो सरकार ने नहीं बल्कि स्थानीय लोगों, जमीदारों के सहयोग से बनाया गया था. इसे प्राइवेट पुल भी कह सकते हैं.
1867 में 86 तालुकेदारों और 200 जमींदारों के सहयोग से बने बैस ब्रिज ऐतिहासिक धरोहर है. इसको जानने के लिए चलते हैं 1857 की क्रांति के समय में..उस समय स्थानीय राजाओं को अंग्रेजों से लड़ने के साथ ही रास्तों की जटिलताओं से भी लड़ना पड़ा था.
इतिहासकारों के मुताबिक अमर सेनानी राना बेनी माधव बक्स सिंह की सेना सई नदी को पार कर अंग्रेजों को मात देती रही. सई नदी को पार कर उन्नाव, फतेहपुर, कानपुर, लखनऊ से रसद लाने में भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता था.
इन जटिलताओं को देखते हुए रायबरेली व लालगंज के मध्य सई नदी (राजघाट) पर बैस ब्रिज बनाया गया था. खास बात इस ब्रिज को अंग्रेजों ने नहीं बल्कि यहां के तालुकेदारों व जमींदारों ने धन संग्रह कर बनाया था.
शायद यह प्रदेश का पहला पुल होगा जो बिना किसी सरकारी सहयोग के बना था.1867 से यह आज तक बैस ब्रिज लोगों के उपयोग में आ रहा.इसका शिलापट आज भी लगा है. इतिहास के जानकार के मुताबिक 1857 की क्रांति में नदी में पुल के निर्माण की आवश्यकता महसूस की गई थी.
तालुकेदारों व जमींदारों में सभी जातियों के लोग शामिल थे. इस ब्रिज के बारे में इतिहास की किताबों में कोई जिक्र तो नहीं है, लेकिन इसमें लगे शिलापट से साफ है कि इसके निर्माण में उन्नाव व लखनऊ, बाराबंकी तक फैले बैसवारा के तालुकेदारों व जमींदारों ने धन संग्रह कर इस पुल का निर्माण कराया और 1867 में इसे जनता को समर्पित किया.
1867 में रायबरेली, उन्नाव, लखनऊ व बराबंकी सीमा तक करीब 86 तालुकेदार थे. इसके साथ ही करीब दो सौ जमींदार रहे.
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