यहां नवरात्रि में दर्शनों की भारी भीड़ उमड़ती है. जिले के बीहड़ों में स्थित 'जालौन वाली माता' के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं. इसका मुख्य कारण है बीहड़ का दस्यु मुक्त होना.
पिछले कई दशकों तक जालौन सहित आसपास के जनपदों इटावा, औरैया आदि में दस्युओं ने काफी दहशत मचा रखी थी. इसके चलते लोगों में डकैतों को लेकर मन में खौफ हो गया था.
इसलिए लोग जालौन वाली माता के दर्शनों के लिए कम ही आते थे. हालांकि, पुलिस और एसटीएफ की सक्रियता के चलते अब अधिकांश डकैत मुठभेड़ के दौरान मारे जा चुके हैं.
वहीं, कुछ ने मारे जाने के डर से आत्म समर्पण कर दिया है. इसके चलते जालौन जनपद के बीहड़ अब डकैतों से मुक्त हो चुका है.
यह मंदिर यमुना और चंबल नदी के पास है. जहां अधिकतर डाकू अपना अड्डा बनाते थे. 2 से 3 दशकों से डांकुओं का साम्राज्य खत्म होने से अब लोग भय मुक्त होकर दर्शन करने आ रहे हैं.
नवरात्रि के समय यहां भक्तों की संख्या में अच्छी खासी बढ़ोतरी होती है. मंदिर से जुड़े किस्से और डाकुओं की कहानी लोगों के लिए आस्था और आकर्षण का केंद्र बन गया है.
कहते हैं बीहड़ के जंगलों में जितने भी डकैत ने राज किया, सब ने जालौन वाली माता के मंदिर में दर्शन के साथ घंटे भी चढ़ाए.
डकैत मलखान सिंह, पहलवान सिंह, निर्भय सिंह गुर्जर, फक्कड़ बाबा, फूलन देवी, लवली पाण्डेय, अरविन्द गुर्जर समेत कई डकैत थे, जो समय-समय पर इस मंदिर में गुपचुप तरीके से माता के दर पर माथा टेकने आते थे.
मान्यता है कि यह मंदिर द्वापर युग में पांड़वों द्वारा स्थापित किया गया था, तभी से इसका एक प्रमुख स्थान रहा है.
स्थानीय निवासियों के मुताबिक, यह मंदिर 1000 साल पुराना है. यहां पांडवों ने तपस्या की थी. महर्षि वेदव्यास द्वारा मंदिर की स्थापना की गई थी. हालांकि कई किवदंतियां भी इस मंदिर से जुड़ी हैं.
बताया जाता है कि एक बार एक भक्त अपने मरे हुए बेटे को मंदिर में लाया था, जो माता के आशीर्वाद से जिंदा हो गया था.
मान्यता है कि मां भक्तों की सारी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं. भक्त यहां आकर समपन्न हो जाते हैं. यह मंदिर चंदेल राजाओं के समय भी खूब प्रसिद्ध हुआ, लेकिन डकैतों के कारण आजादी के बाद ये स्थान चंबल का इलाका कहलाने लगा.
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