लंपी स्किन के डर से प्रतापगढ़ के बलि देने वाले आदिवासी घने जंगलों में अब निभा रहे ये पुरानी परंपरा
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लंपी स्किन के डर से प्रतापगढ़ के बलि देने वाले आदिवासी घने जंगलों में अब निभा रहे ये पुरानी परंपरा

Pratapgarh: जिलेभर में लगातार लंपी वायरस का खतरा पशुओं पर मंडरा रहा है. आदिवासी समुदाय के ये लोग यहां पंहुचकर हवन पूजन कर माता से जानवरों में आई इस बीमारी को खत्म करने की प्राथना कर रहे है.

बीमारी को खत्म करने के लिए निभा रहे ये परंपरा.

Pratapgarh: जिलेभर में लगातार लंपी वायरस का खतरा पशुओं पर मंडरा रहा है. इस से बचने के लिए पशु चिकित्सालय की और से भी लगातार प्रयास किये जा रहे लेकिन उस गंभीर बिमारी की चपेट में हर रोज पशुओं की संख्या बढ़ती जा रही है. आदिवासी बाहुल्य जिले प्रतापगढ़ में पशु धन की अहम भूमिका है. यहां क्षेत्र के लोगों की आजीविका में भी पशुओं का अहम योगदान है.

जिले के पीपलखूंट उपखण्ड क्षेत्र के लोग अब इस बिमारी से बचाव को लेकर आदिवासी बुज परिवार की आराध्य देवी जो पीपलखूंट के जंगल में सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्तिथि मोलक माता के मंदिर में हवन के लिए घने जंगल में एकत्रित होकर पूजा अर्चना कर रहे है. आदिवासी समुदाय के ये लोग यहां पंहुचकर हवन पूजन कर माता से जानवरों में आई इस बीमारी को खत्म करने की प्राथना कर रहे है.

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माता की ये अलौकिक प्रतिमा पीपलखूंट के आम्बापाड़ा जंगल की ऊंची पहाड़ी में स्थित है. आदिवासी समुदाय के लोग जब भी क्षेत्र में कोई ऐसी बड़ी समस्या आती है तो माता के इसी दरबार में पंहुचते है. आदिवासी समुदाय के लोगो द्वारा यहां आदिवासी पद्धति से हवन यज्ञ कर मां से आशीर्वाद लेते है.

बताते है कि प्राचीन काल में सबसे प्रथम बांसवाड़ा का दरबार यहां आये और आम्बापाड़ा के आदिवासी बुज परिवार के साथ मिलकर जंगल में ऊंची पहाड़ी पर अपना निवास बनाया गया और बड़ी बड़ी ईंटों के पक्के मकान बनाए और मां मोलग की मुर्ति स्थापित की गई. उसके बाद दरबार यहां से वापस चले गये. आम्बापाड़ा के आदिवासी बुज परिवार ने आज तक यहां की परंपरा के अनुसार मां मोलग की पूजा पद्धति जारी रखी और मां को समय-समय पर बलि देने की परम्परा आज भी निभाई जाती है. आज भी यहां पुराने कई अवशेष दिखाई देते है. दरबार के समय में बनी पक्की इमारत भी यहां देखने को मिलती है.

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