Book Review: 'माधोपुर का घर' एक परिवार की कहानी नहीं अपने समय का दस्तावेज है
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Book Review: 'माधोपुर का घर' एक परिवार की कहानी नहीं अपने समय का दस्तावेज है

राजकमल पेपरबैक्स से आई त्रिपुरारी शरण की क़िताब 'माधोपुर का घर' पिछले सौ सालों के इतिहास की रोचक दास्तान है.

फाइल फोटो

Book Review: राजकमल पेपरबैक्स से आई त्रिपुरारी शरण की क़िताब 'माधोपुर का घर' पिछले सौ सालों के इतिहास की रोचक दास्तान है. ये उपन्यास तीन पीढ़ियों में देश और समाज में आए बदलावों से हमारा परिचय कराती है. 

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वैसे भी बिहार के बारे में दो बातें मशहूर हैं, पहला ये कि बिहार होनहारों की धरती है और दूसरा ये कि पलायन की पीड़ा झेलना यहां के लोगों की नियति है. एक कुशल मजदूर हो या एक वरिष्ठ अधिकारी दोनों ही परिस्थितियों में पलायन ही विकल्प होता है. किसी को यहां उनके हुनर के मुताबिक काम नहीं मिलता तो किसी को सफलता के स्थापित पैमाने स्पर्श करने के बाद भी सूबे में सपने पूरे होने की गुंजाईश नज़र नहीं आती. इसी सच्चाई को रोचक प्रसंगों के जरिए उपन्यास की शक्ल में पेश किया है त्रिपुरारी शरण ने इस किताब में. 

'माधोपुर का घर' पढ़ते हुए आपको ऐसा लग सकता है कि ये आत्मकथा की शैली में लिखा उपन्यास है. जो क़िताब के लेखक के घर की कहानी है. हालांकि लेखक ने कथानक की कड़ियों को इस खूबसूरती से आपस में जोड़ा है कि कब शर्मा जी का परिवार पूरा बिहार बन जाता है और कब पूरा बिहार शर्मा जी का परिवार बन जाता है पता ही नहीं चलता. 

'माधोपुर का घर' ना तो लेखक की आत्मकथा है और ना ही उपन्यास के केंद्रीय पात्र बाबा यानी शर्मा जी की जीवनी. ये सूत्रधार लैब्राडोर लोरा की कहानी भी नहीं है, दरअसल ये माधोपुर के उस घर की कहानी है, जो आज भी अनेक प्रसंगों और घटनाओं को अपने में समेटे है. उन्हीं प्रसंगों और घटनाओं में से कुछ चुनिंदा संकलन को त्रिपुरारी शरण ने अपने उपन्यास 'माधोपुर का घर' में संजोया है. जब भी क़िताब में माधोपुर के घर का प्रसंग चल रहा होता है, तो उसकी रवानी अलग ही होती है. ये इस बात की गवाही भी है कि बड़े प्रशासनिक ओहदे में मिलनेवाली कोठियों में रहने के बावजूद भी लेखक के मन में अपने कच्चे-पक्के घर की स्मृति सदैव बनी रही. नतीजा माधोपुर में बिताई जाने वाली छुट्टियों में लंबा मॉर्निंग वॉक हो या घर में जुटने वाली जरूरतमंदों की भीड़ या फिर होली के मौके पर आयोजित होने वाला होली गायन प्रतियोगिता, किसी न किसी बहाने वो इस घर को अलग अंदाज़ में सजाते हैं.

'माधोपुर का घर' तीन पीढ़ियों के बीच से होकर गुजरती है. दादी के बहाने ये क़िताब अंग्रेजी हुकूमत के सामंती हनक और सिमटती राजशाही के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती है. कहां जॉर्ज पंचम का स्वागत करने वाला फाटक और कहां एक योग्य दामाद का दीदार करने को तरसती देहरी, यक़ीन नहीं होगा कि ये कहानी एक ही परिवार की है. ये क़िताब बाबा यानी शर्मा जी के जरिए नए आज़ाद मुल्क के एक संघर्षशील युवा की कहानी कहती है. शर्मा जी एक साथ कसरती पहलवान और खेतों में खटने वाले किसान भी हैं, मुज़फ्फरपुर के सबसे पुराने डॉक्टर साहब और माधोपुर के घर के एक हिस्से के वारिस भी हैं, शिक्षा विभाग में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभालने वाले एक अधिकारी भी हैं तो श्वानों के संकेतों को समझने वाले एक पारखी मनोवैज्ञानिक भी हैं. इन सबसे बढ़कर वे चार बच्चों के पिता भी हैं, लिहाजा शर्मा जी के बहुआयामी व्यक्तित्व की वजह से 'माधोपुर का घर' एक साथ कई पहलूओं पर बात करती है. सबसे अच्छी बात तो ये है कि लेखक अपनी तरफ से कुछ भी जोड़ते-घटाते नहीं हैं, बस बात रखते हैं, कहानी अपनी रफ्तार में आप चलती है.

शर्मा जी चार सफल पुत्रों के पिता हैं, संपन्न बाप के इकलौते बेटे हैं और खुद भी अधिकारी रहे हैं. हर मोर्चे पर उन्होंने कामयाबी के झंडे गाड़े हैं लेकिन अपनी पत्नी यानी उपन्यास की दादी के साथ उनके रिश्ते ऐसे हैं जिसने पाठकों के मन में कई तरह के सवाल छोड़ दिए हैं. माधोपुर के इस घर में खुशहाली के लिए जितनी चीजें चाहिए वो सब है, लेकिन बाबा और दादी की जिंदगी में एक किस्म का अवसाद नज़र आता है. माता-पिता के बीच रिश्तों को सामान्य करने की क़वायद के बीच एक जगह लेखक त्रिपुरारी शरण ने खुद ही लिखा है कि ''तीपू को लगा कि कुछ गूढ़ और रहस्यमय सन्दर्भ है बाबा और दादी के दाम्पत्य जीवन का जिसकी ओर यह पूरी घटना इशारा कर रही थी.'' 'माधोपुर का घर' लिखते हुए लेखक इस प्रसंग को छोड़ भी सकते थे, लेकिन इसे हूबहू रखकर उन्होंने एक किस्म की लेखकीय ईमानदारी का परिचय दिया है.

माधोपुर के घर की कहानी बुनने में कई बार लेखक बाहरी दुनिया की हलचल से नज़र बचाकर चलते हैं, मुमकिन है कि कहानी समेटने के लिहाज से वो ऐसा कर रहे हों. मसलन आपातकाल के आंदोलन के बाद बिहार में आया सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हो या 1990 के दौर के बिहार में चल रही सामाजिक न्याय की राजनीति का गहरा असर. ये कैसे हो सकता है कि दो बड़े सामाजिक परिवर्तनों का असर माधोपुर के इस घर पर न पड़ा हो. लेकिन इन दोनों बातों से लेखक लगभग किनारा कर लेते हैं. तीपू के बड़े भाई उमंग के बारे में बात करते हुए क़िताब में सम्पूर्ण क्रांति के आंदोलन का जिक्र है लेकिन इसमें भी पाठकों की जिज्ञासा का समाधान नहीं होता है और पाठकों के मन में कई तरह के सवाल रह जाते हैं. एक पाठक होने के नाते मुझे लगता है कि, उमंग के जेल जाने और अधिकारी बनने की रोचक दास्तान में कुछ प्रसंग और जोड़े जाने चाहिए थे. 

ये महज संयोग नहीं  है कि क़िताब के लेखक और उपन्यास का एक अहम पात्र तीपू भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं. तीपू जब गांव आते हैं तब बिहार सरकार और केंद्र सरकार में फंसे काम की पैरवी कराने के लिए माधोपुर के घर में जुटने वाली ग्रामीणों की भीड़ जुटती है. त्रिपुरारी शरण बतौर वरिष्ठ अधिकारी खासकर बिहार में अपने अनुभवों को थोड़ा शेयर करते तो पाठकों को साथ और इंसाफ होता. फिलहाल गुजरे 100 सालों के इतिहास का एक रोचक दस्तावेज है 'माधोपुर का घर' जिसके जरिए आप तीन पीढ़ियों के जरिए मुल्क में हो रहे बदलाव को भी महसूस कर सकते हैं. इसके साथ ही ये कहानी बनते और बिखरते पारिवारिक मूल्यों की भी कहानी है. जहां से पाठक अपने मकसद की चीजें हासिल कर सकते हैं. 

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