उस की आंखें हैं कि इक डूबने वाला इंसां... दूसरे डूबने वाले को पुकारे जैसे
जाने क्या ठान के उठता हूं निकलने के लिए... जाने क्या सोच के दरवाज़े से लौट आता हूँ
अब आ गई है सहर अपना घर संभालने को... चलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ
उस को मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी... और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
नफ़रत के ख़ज़ाने में तो कुछ भी नहीं बाक़ी... थोड़ा सा गुज़ारे के लिए प्यार बचाएँ
मैं झपटने के लिए ढूंढ रहा हूं मौक़ा... और वो शोख़ समझता है कि शरमाता हूं
रूप की धूप कहां जाती है मालूम नहीं... शाम किस तरह उतर आती है रुख़्सारों पर
उड़े तो फिर न मिलेंगे रफ़ाक़तों के परिंद... शिकायतों से भरी टहनियाँ न छू लेना
भूल जाओगे कि रहते थे यहां दूसरे लोग... कल फिर आबाद करेंगे ये मकां दूसरे लोग