"कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीअ'त से उछालो यारो"

हंगामा

सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मिरा मक़्सद नहीं... मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

आग

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही... हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए

गंगा

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए... इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

जमीन

तुम्हारे पावँ के नीचे कोई ज़मीन नहीं... कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं

बदलाव

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो... ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

मुनासिब

न हो क़मीज़ तो पाँव से पेट ढक लेंगे... ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

निशान

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है... माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है

गजल

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं... वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ

आदत

एक आदत सी बन गई है तू... और आदत कभी नहीं जाती

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