मज़हबी बहस मैंने की ही नहीं, फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं

मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ, नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ, बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ

लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को, मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं

बोले कि तुझ को दीन की इस्लाह फ़र्ज़ है, मैं चल दिया ये कह के कि आदाब अर्ज़ है

कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की, ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की

ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन, सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर

नौकरों पर जो गुज़रती है मुझे मालूम है, बस करम कीजे मुझे बेकार रहने दीजिए

सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे, वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे

VIEW ALL

Read Next Story