Who is Yasin Pathan: आज हम आपको बताएंगे मंदिरों के एक ऐसे रखवाले के बारे में जो मस्जिद में इबादत करते हैं. पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में यासीन पठान गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल पेश कर रहे हैं. पने गांव में वो 18वीं सदी के 34 हिंदू मंदिरों के संरक्षण के काम में शिद्दत से जुटे हैं. इस काम के लिए उन्हें विरोध भी झेलना पड़ा लेकिन वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रह. यासीन पठान ने गरीबी से जंग लड़ी, एक मजदूर के रूप में काम किया और तमाम बीमारियों से जूझते रहे. एक स्कूल क्लर्क की जिम्मेदारी निभाते हुए वह मिदनापुर के सात गांवों में सैकड़ों मील का सफर करते हैं. लेकिन कभी भी अपने लक्ष्य से उनकी नजर नहीं हटती है. यह सब कुछ करते हुए उन्हें अपने समुदाय का विरोध भी झेलना पड़ता है. इसके बावजूद 69 साल के पठान बिना थके काम करते रहते हैं. ये मंदिर आज अगर जीवंत हो उठे हैं तो उसके पीछे यासीन पठान की कड़ी मेहनत है. 1994 में यासीन पठान के काम को नई पहचान मिली थी जब उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए राष्ट्रपति की जानिब से कबीर अवॉर्ड दिया गया पाथरा मौजा गांव मिदनापुर कस्बे से ज्यादा दूर में 18वीं शताब्दी के 34 मंदिर हैं. अपनी जवानी के दिनों में यासीन अपने पिता तहारित के साथ पाथरा जाया करते थे. वह जीर्ण-शीर्ण पड़े अद्भुत मंदिरों के पास रुकते थे उन मंदिरों की किसी को परवाह नहीं थी और वे ध्वस्त होने की कगार पर थे. यासीन ने फैसला किया कि इन मंदिरों को वो बचाएंगे. एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुए यासीन आठवीं से आगे की पढ़ाई नहीं कर सकें. अपने 10 भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के नाते जिम्मेदारी भी उन पर थी. पिता की मदद के लिए पठान ने एक मजदूर का काम भी किया. बाद में उन्हें अपने इलाके के एक स्कूल में क्लर्क की नौकरी मिल गई. 1971 में उन्होंने मंदिरों के बारे में जानकारी जुटानी शुरू की. शुरुआत में यासीन को अंदाजा नहीं था कि अगर एक मुस्लिम मंदिरों की देखभाल करेगा तो हिंदू समुदाय की क्या प्रतिक्रिया होगी. उनको अपने ही समुदाय मे विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन कभी लक्ष्य से डिगे नहीं, और आज यासीन भाईचारे की एक बेहतरीन नज़ीर बन चुके हैं.