Dawoodi Bohra community: दाऊदी बोहरा समुदाय में लागू बहिष्कार प्रथा का मामला सुप्रीम कोर्ट में है. सुप्रीम कोर्ट इस बात की पड़ताल करेगा कि क्या दाऊदी बोहरा समुदाय में बहिष्कार की प्रथा संविधान के तहत 'संरक्षित' है या नहीं. दाऊदी बोहरा समुदाय के लोग इस मामले को लेकर 1962 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. यहां तर्क दिया गया कि समाज में बहिष्कार का मामला धार्मिक मामलों से संबंधित नहीं है. इसे दंडनीय अपराध ना बनाने की भी मांग की गई. इस समुदाय के लोग शिया मुस्लिम कम्युनिटी के सदस्य होते हैं. इस समुदाय के लोगों का एक लीडर भी होता है. इसे अल-दाइ-अल-मुतलक कहा जाता है. पिछले करीब 400 सालों से भारत से ही इसका धर्मगुरु चुना जा रहा है. भारत में यह महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश में अधिकांश संख्या में पाए जाते हैं. दाऊदी बोहरा समुदाय मुख्य रूप से इमामों के प्रति अपना अकीदा रखता है. दाऊदी बोहराओं के 21वें और अंतिम इमाम तैयब अबुल कासिम थे. इनके बाद 1132 से आध्यात्मिक गुरुओं की परंपरा शुरू हो गई जो दाई अल मुतलक सैयदना कहलाते हैं. इन्हें सुपर अथॉरिटी माना गया है और इनके व्यवस्था में कोई भीतरी और बाहरी शक्ति दखल नहीं दे सकती. दरअसल इस समुदाय का एक मुखिया होता है. इसकी तुलना पोप और शंकराचार्य से की जा सकती है. इनके आदेश-निर्देश को चुनौती नहीं दी जा सकती है. वो दुनिया के किसी भी कोने में रहें उनके आदेशों को पालन समुदाय के सभी लोगों को करना जरूरी होता है.अगर समुदाय को कोई सदस्य धर्मगुरु के आदेशों का पालन नहीं करता है तो उसका बहिष्कार किया जाता है. ऐसा व्यक्ति को दाऊदी बोहरा समाज से जुड़ी मस्जिद, कब्रिस्तान, मदरसे, सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति नहीं होती. इसे ही बहिष्कार प्रथा के नाम से जाना जाता है.