Himachal Pradesh News: सिरमौर में परंपरागत नाटी और गीत संगीत की धूम देखने को मिल रही है. हाटी जनजातीय क्षेत्र की 154 पंचायतों में 4 दिन तक मंगराद के उपलक्ष्य में नाटियों का दौर शुरू हो गया है. इस दौरान लोग अपने देवी-देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं.
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ज्ञान प्रकाश/पांवटा साहिब: हिमाचल प्रदेश की सिरमौर जनपद में सदियों पुराने माघी त्योहार के बाद परंपरागत नाटी और गीत संगीत का दौर शुरू हो गया है. यहां लोग एक सप्ताह तक मस्ती में डूबे रहेंगे. हाटी जनजातीय क्षेत्र की 154 पंचायतों में 4 दिवसीय माघी त्योहार के बाद मंगराद के उपलक्ष्य पर गिरिपार क्षेत्र के नौहराधार, देवामानल में नाटियों का दौर शुरू होता है.
बता दें, माघी त्योहार पर क्षेत्र के सैकड़ों गांव के अधिकतर घरों में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बकरों की बलि दी जाती है. इस उपलक्ष पर यहां महीना भर उत्सव की धूम रहती है. सिरमौर जनपद के ट्रांस गिरी हाटी क्षेत्र में आजकल नाच-गानों की धूम देखने को मिल रही है. इस क्षेत्र के लोग वाद्य यंत्रों की धुन और पारंपरिक गीतों पर थिरकते नजर आ रहे हैं. गिरिपार जनजातीय क्षेत्र में यह मस्ती लगभग एक महीना चलती है.
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दरअसल यहां माघी त्योहार यानी 'भातियोज' के बाद लगभग 1 महीने तक नाच गाना और दावतों का दौर चलता है. माघी त्योहार माघ महीने के अंत और पौष महीने की शुरुआत से शुरू होता है. इस त्यौहार के दौरान क्षेत्र के देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बाली के रूप में बकरों की बली देने की प्रथा है.
सदियों से चली आ रही इस प्रथा को लेकर मान्यता है कि क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाओं से बचाव और परिवार की सुख-समृद्धि के लिए देवी-देवताओं को प्रसन्न किया जाता है. इसके लिए क्षेत्र के लगभग 40 हजार परिवार देवताओं को बकरा और खाडू प्रदान करते हैं. देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के बाद क्षेत्र के लोग खुशी मनाते हैं. इस उपलक्ष में क्षेत्र भर में नाच गाना और दावतों का दौर चलता है. इस दौरान हर घर में दावत होती हैं. दावतों में करीबी मित्रों और रिश्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है.
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हाटी क्षेत्र के लोगों ने इन परंपराओं को तेजी से बदलाव के इस दौर में भी संजोह कर रखा है. आज भी यह त्योहार प्राचीन स्वरूप में ही मनाए जाते हैं. गिरिपार क्षेत्र के हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा दिलाने वाली केंद्रीय हाटी समिति का मानना है कि यह प्राचीन परंपराएं हाटी समुदाय के लोगों की कीमती धरोहर हैं. इन्हीं परंपराओं की वजह से उन्हें जनजातीय दर्जा मिल पाया है.
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