Mahamaya Temple Ambikapur: सरगुजा के महामाया मंदिर में बिना सिर वाली मूर्ति की होती है पूजा, जानिए वजह
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Mahamaya Temple Ambikapur: सरगुजा के महामाया मंदिर में बिना सिर वाली मूर्ति की होती है पूजा, जानिए वजह

Mahamaya Temple Ambikapur: सरगुजा वासियों की आराध्य देवी महामाया की महिमा अपरंपार है. इस मंदिर में मां की दो मूर्तियां हैं. मंदिर का इतिसाह सैकड़ों साल पुराना है. आइए जानते हैं इसके महत्व और इतिहास के बारे में...

Mahamaya Temple Ambikapur: सरगुजा के महामाया मंदिर में बिना सिर वाली मूर्ति की होती है पूजा, जानिए वजह

सुशील कुमार/सरगुजा: जिले के अंबिकापुर (Mahamaya Temple Ambikapur) स्थिति महामाया मां के मंदिर की महिमा अपरंपरा है. यहां छिन्नमस्तिका मां के दिव्य शक्तियों के कारण लोग श्रद्धा भाव से खिंचे आते हैं. कुआर महीने की नवरात्रि में छिन्नमस्तिका मां महामाया के सिर का निर्माण राजपरिवार के कुम्हार हर साल करते हैं. कहा जाता है कि महादेवी का धड़ अंबिकापुर के महामाया मंदिर में स्थित है और उनका सिर बिलासपुर के रतनपुर महामाया मंदिर में रखा गया है. शारदीय नवरात्रि पर यहां भक्तों की भारी भीड़ लगती है.

क्या बताते है इतिहासकार गोविंद शर्मा
सरगुजा के इतिहासकार और राजपरिवार के जानकार गोविंद शर्मा बताते हैं कि महामाया मंदिर का निर्माण सन 1910 में कराया गया था. इससे पहले एक चबूतरे में मां स्थापित की गई थीं और राजपरिवार के लोग जब पूजा करने जाते थे, वहां बाघ बैठे रहते थे. सैनिक जब बाघ को हटाते थे तब कहीं जाकर माता का पूजन किया जाता था. 

क्या है सरगुजा की मां महामाया और समलाया मंदिर का इतिहास
आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि जिस प्रतिमा को महामाया के नाम से लोग पूजते हैं. इसके पहले इनका नाम समलाया था. महामाया मंदिर में ही दो मूर्तियां स्थापित थी वर्तमान महामाया को बड़ी समलाया कहा जाता था. वर्तमान में समलाया मंदिर में विराजी मां समलाया को छोटी समलाया कहते थे. बाद में जब समलाया मंदिर में छोटी समलाया को स्थापित किया गया. तब बड़ी समलाया को महामाया कहा जाने लगा और तभी से अम्बिकापुर के नवागढ़ में विराजी मां महामाया और मोवीनपुर में विराजी मां समलाया की पूजा लोग इन रूपों में कर रहे हैं. 

क्यों हैं महामाया और समलाया मंदिर में दो-दो मूर्तियां
इतिहासकार गोविंद शर्मा ने बताया कि महामाया और समलाया दोनों ही मंदिरों में देवी को जोड़े में रखना था. इसलिए सरगुजा के तत्कालीन महाराज रामानुज शरण सिंह देव की मां और महाराजा रघुनाथ शरण सिंह देव की पत्नी भगवती देवी ने अपने मायके मिर्जापुर से अपनी कुलदेवी विंध्यवासिनी की मूर्ति की स्थापना इन दोनों मंदिरों में कराई. तब से महामाया और समलाया के बाजू में विंध्यवासिनी को भी पूजा जाता है.

जानिए क्या है अंबिकापुर और रतनपुर की मां महामाया की मान्यता
अम्बिकापुर की महामाया मंदिर को लेकर कई मान्यताएं हैं, माना जाता है कि रतनपुर की महामाया भी इसी मूर्ती का अंश है. संभलपुर की समलाया की मूर्ती और डोंगरगढ़ की मूर्ती का भी संबंध सरगुजा से बताया जाता है. दरअसल सरगुजा के वनांचल में अपार मूर्तियां यहां-वहां बिखरी हुई थीं और जब सिंहदेव राजपरिवार यहां आया तब इन मूर्तियों को वापस संग्रहित कर पूजा पाठ शुरू किया गया और उसके बाद से ही आस-पास के क्षेत्रों में यहां से मूर्तियां ले जाई गईं. 

श्रद्धालु जलाते हैं अखंड ज्योति
श्रद्धा, आस्था और विश्वास के बीच मान्यताओं का अहम योगदान रहा है और ऐसी ही कुछ मान्यताएं अम्बिकापुर की महामाया की है. जिस वजह से यहां निवास करने वाला हर इंसान अपने हर शुभ कार्य करने से पहले अर्जी मां महामाया के सामने ही लगाता है. लोगों का अटूट विश्वास है कि मां किसी को भी निराश नहीं करती हैं. यही वजह है कि न सिर्फ समूचे सरगुजा से बल्कि छत्तीसगढ़ के अन्य जिलों व अन्य प्रदेशों से भी लोग महामाया के दर्शन को आते हैं. चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र के समय श्रद्धालु अपने-अपने शक्ति अनुसार घृत और तेल के अखंड ज्योति कलश दीप जलवाते हैं. यहां देश-विदेश में रहने वाले लोग भी रसीद कटवाकर अखण्ड ज्योति कलश प्रज्ज्वलन करवाते हैं. वहीं दर्शन के लिए भक्तों को भीड़ में कई घंटे लाइन में लगने के बाद ही मां महामाया के दर्शन संभव हो पाता हैं. 

कौन करता है मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश
अंबिकापुर के नवागढ़ में विराजी महामाया यहां के राजपरिवार की कुल देवी हैं. यानी कि वर्तमान में छत्तीसगढ़ शासन में स्वास्थ्य मंत्री जिन्हें सियासत काल के मुताबिक सरगुजा का महाराज होने का गौरव प्राप्त है. वहीं मंदिर की विशेष पूजा करते हैं और उनके परिवार के लोग ही माहामाया और समलाया के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकते हैं. 

ऋषिमुनियों की तपोस्थली रही है सरगुजा
मान्यता है कि यह मूर्ति बहुत पुरानी है. सरगुजा राजपरिवार के जानकारों के अनुसार रियासत काल से राजा इन्हें अपनी कुलदेवी के रूप में पूजते आ रहे हैं. बताया जाता है कि सरगुजा भगवान राम के आगमन समय से ही ऋषि मुनियों की तपोस्थली भूमि रही है, जिस कारण यहां कई प्राचीन मूर्तियां यंत्र-तंत्र रखी हुई थी. जब सिंह देव घराने ने सरगुजा में हुकूमत की तब इन मूर्तियों को संग्रहित किया गया, बताया जाता है कि ये ओडिशा के संभलपुर में विराजी समलाया और डोंगरगढ़ में भी सरगुजा की मूर्तियां हैं. 

मंदिर के मूर्ती का नहीं है सिर
सरगुजा की माहामाया का सबसे अद्भुत और विचित्र वर्णन यह है कि यहां मंदिर में स्थापित मूर्ति छिन्नमस्तिका है, अर्थात मूर्ती का सर नहीं है, धड़ विराजमान है और उसी की पूजा होती है, हर वर्ष नवरात्र में यहां राजपरिवार के कुम्हारों के द्वारा माता का सिर मिट्टी से बनाया जाता है. और इसी आस्था की वजह से सरगुजा में एक जशगीत बेहद प्रसिद्ध है गीत बोल हैं "सरगुजा में धड़ है तेरा हृदय हमने पाया, मुंड रतनपुर में मां सोहे कैसी तेरी माया" इस गीत को सरगुजा के लोग मां की आराधना करते हुए गाते हैं.

दो जगहों के मां महामाया मंदिर के दर्शन किए बिना अधूरा है दर्शन
सरगुजा रियासत पर मराठाओं ने कई बार हमला किया, लेकिन वो हर बार हार का सामना करते थे. शायद उनकी नजर महामाया की महिमा पर थी. जानकार बताते हैं कि एक बार मराठा मूर्ती ले जाने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन वो मूर्ति उठा नहीं पाए और माता की मूर्ती का सिर उनके साथ चला गया और वह सिर बिलासपुर के पास रतनपुर में मराठाओं ने रख दिया. तभी से रतनपुर की महामाया की भी महिमा विख्यात है. माना जाता है की रतनपुर और अंबिकापुर माहामाया का दर्शन किए बिना दर्शन पूरा नहीं होता है.

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