ICU में लंबे समय तक भर्ती मरीजों पर क्यों बढ़ जाता है मल्टी ऑर्गन फेल्योर का खतरा, जानें इसका बड़ा कारण
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ICU में लंबे समय तक भर्ती मरीजों पर क्यों बढ़ जाता है मल्टी ऑर्गन फेल्योर का खतरा, जानें इसका बड़ा कारण

Health News: एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की वजह से 2050 तक दुनिया में एक करोड़ लोग इंफेक्शन की वजह से मारे जाएंगे. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक  इसी दर से दवाएं बेअसर होती रहीं तो सेहत पर होने वाला खर्च 1 ट्रिलियन डॉलर प्रतिवर्ष बढ़ जाएगा. 

ICU में लंबे समय तक भर्ती मरीजों पर क्यों बढ़ जाता है मल्टी ऑर्गन फेल्योर का खतरा, जानें इसका बड़ा कारण

AIIMS Research: एंटीमाइक्रोबियल रजिस्टेंस (Antimicrobial Resistance) यानी इंफेक्शन से लड़ने वाली दवाओं के बेअसर होने की वजह से हर साल दुनिया में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं. दक्षिण एशियाई देशों में 4 लाख लोगों की मौत ऐसे खतरनाक इंफेक्शन से हो रही है, जिन पर कोई दवा असर नहीं कर रही. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक जिस स्तर पर आज समस्या नजर आ रही है. अगर इसे समय रहते हल नहीं किया गया तो 2050 तक दुनिया में एक करोड़ लोग इंफेक्शन की वजह से मारे जाएंगे, क्योंकि उन पर दवाएं असर नहीं कर रही होंगी. इसी दर से दवाएं बेअसर होती रहीं तो सेहत पर होने वाला खर्च 1 ट्रिलियन डॉलर प्रतिवर्ष बढ़ जाएगा. 

वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की वजह से अगले 25 साल में ग्लोबल एक्सपोर्ट में 3.8% की कमी आ सकती है. हर साल पैदा होने वाला लाइव स्टॉक जैसे मीट और डेयरी प्रॉडक्टस सालाना 7.5% की दर से कम हो सकते हैं और हेल्थ पर आने वाले खर्च में 1 ट्रिलियन डॉलर की बढ़त हो जाएगी.

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दवाओं के असर कम क्यों होने लगता है
सर्जरी के दौरान होने वाले इंफेक्शन, कैंसर के इलाज के दौरान चल रही कीमोथेरेपी से होने वाले इंफेक्शन को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं की एक तय डोज दी जाती है, लेकिन लंबे समय तक बार-बार इन दवाओं को इस्तेमाल करते रहने से इन दवाओं का असर कम होने लगता है. 

रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब
एम्स की रिपोर्ट के मुताबिक रिजर्व एंटीबायोटिक भी बेअसर हो रहे हैं. देशभर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के शिकार कई मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही है. ऐसे मरीजों पर मौत का खतरा मंडरा रहा है. चिंता की बात ये है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जिस लेटेस्ट दवा को रिजर्व कैटेगरी में रखा है, वो भी अब कई बार मरीजों पर काम नहीं कर रही. एम्स में कार्डियोलॉजिस्ट डॉ अंबुज रॉय के मुताबिक रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब होता है कि इसे चुनिंदा मौकों पर ही इस्तेमाल किया जाएगा. हाल ये हो गया है कि सबसे असरदार एंटीबायोटिक भी केवल 20% मामलों में ही कारगर पाए जा रहे हैं यानी बाकी बचे 60 से 80% मरीज खतरे में हैं और उनकी जान जा सकती है. इसकी असली वजह मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना है. 

 इन दो बैक्टीरिया से सबसे ज्यादा नुकसान 

भारत की सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च संस्था आईसीएमआर ने पिछले वर्ष जनवरी से लेकर दिसंबर तक देश के 21 अस्पतालों से डाटा इकट्ठा किया. इन अस्पतालों के आईसीयू में भर्ती मरीजों के 1 लाख सैंपल इकट्ठे किए गए. रिसर्च के दौरान इंफेक्शन वाले 1747 तरह के बैक्टीरिया मिले. इन सभी में दो बैक्टीरिया - ई कोलाई बैक्टीरिया और क्लैबसेला निमोनिया सबसे ज्यादा खतरनायक हो चुके हैं. इन बैक्टीरिया के शिकार मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही थी.   

2017 में ई कोलाई बैक्टीरिया के शिकार 10 में से 8 मरीजों पर दवाओं ने काम किया था, लेकिन 2022 में 10 में से केवल 6 मरीजों पर दवाओं का असर दिखा. इसी तरह 2017 में क्लैबसेला निमोनिया (Klebsiella pneumonia) के शिकार 10 में से 6 मरीजों पर दवा काम कर रही थी, जबकि 2022 में 10 में से केवल 4 मरीजों पर दवाएं काम कर रही थीं. इंफेक्शन मरीजों के ब्लड तक पहुंचकर उन्हें बीमार से और बीमार कर रहा है. आईसीएमआर की सीनियर साइंटिस्ट डॉ कामिनी वालिया के मुताबिक एंटीबायोटिक दवाओं के काम न करने की समस्या केवल अस्पताल में भर्ती गंभीर मरीजों तक सीमित नहीं है. पेट खराब होने के मामलों में ली जाने वाली कॉमन एंटीबायोटिक दवाएं भी मरीजों पर बेअसर साबित हो रही हैं.   

अस्पतालों में जानलेवा इंफेक्शन का खतरा क्यों?
अस्पतालों में आईसीयू में मरीज को लगाए जाने वाले कैथेटर, कैन्युला और दूसरे डिवाइस में कई बैक्टीरिया और जीवाणु पनपते रहते हैं. ये इंफेक्शन पहले से बीमार और कमजोर इम्युनिटी वाले मरीजों को और बीमार कर सकते हैं. लंबे समय तक आईसीयू में भर्ती मरीजों को ऐसे इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है.  जब ये इंफेक्शन खून में पहुंच जाता है तो इस कंडीशन के गंभीर होने पर धीरे-धीरे मरीज के अंग काम करना बंद करने लगते हैं, जिसे मल्टी ऑर्गन फेल्योर  कहा जाता है.   

जाने अनजाने हमारे शरीर में जा रहे एंटीबायोटिक
अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए आईसीएमआर की गाइडलाइंस हैं कि किन मामलों में एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की जाएं और नहीं, लेकिन इनका पालन नहीं किया जाता. मुर्गे, बकरे और गाय भैंस से मिलने वाले मीट, दूध और अंडों के जरिये एंटीबायोटिक अंजाने में लोगों को मिल जाते हैं. अस्पताल और इंडस्ट्री के वेस्ट के जरिये ग्राउंड वॉटर में एंटीबायोटिक घुलने की पुष्टि भी कई रिसर्च में हो चुकी है. खुद मरीजों के केमिस्ट से सीधे एंटीबायोटिक दवाएं लेकर खा लेने और आधा कोर्स करके उसे छोड़ देने की वजह से भी ये दवाएं बेअसर हो रही है. अस्पतालों में इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया जिन्हें सुपरबग्स का नाम भी दिया गया है, उन पर लगाम लगाने के लिए काम किया जा रहा है. हालांकि पूरे देश के छोटे बड़े अस्पतालों में उस नेटवर्क को तैयार होने और पूरी तरह से काम करने में कई साल लग सकते हैं. 

 

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