Bihar Se Palayan Series 1: जवानी छोड़ती जा रही है बिहार का दामन, पलायन से किसका फायदा और किसका नुकसान?
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Bihar Se Palayan Series 1: जवानी छोड़ती जा रही है बिहार का दामन, पलायन से किसका फायदा और किसका नुकसान?

Bihar Se Palayan: बिहार से पलायन करने वाले करें या न करें, किसे फर्क पड़ता है. राजनीति तो जातीय जनगणना, मंडल, कमंडल और हिंदू मुस्लिम त्योहारों पर छुट्टियों को बढ़ाने और उसमें कटौती करने में है. 

बिहार से पलायन

Bihar Se Palayan Series 1: उत्तराखंड में एक कहावत बहुत ही आम है, पानी और जवानी पहाड़ का साथ नहीं देती. इस कहावत में से अगर पानी हटा दिया जाए तो यह बिहार के हालात पर बिल्कुल सटीक बैठता है. राज्य के लोग युवावस्था में आते ही कमाने के लिए ट्रेन पकड़ लेते हैं. दिवाली और छठ पूजा के बाद बिहार से काम पर लौटते प्रवासी मजदूरों की व्यथा कथा के वीडियो आजकल बहुत वायरल हो रहे हैं. ट्रेनों के शौचालयों में स्पाइडरमैन बनकर लटकना हो या फिर जनरल डिब्बों में जानवरों की तरह ठूसकर सफर करना उनकी नियति बन गई है. दिवाली और छठ के बाद बिहार से लौटना पहाड़ तोड़ने से कम मुश्किल काम नहीं है. जिस बोगी के शौचालयों में बिहारी मजदूर यात्रा करते हैं, उस बोगी के लोगों का नित्य कर्म कैसे होता होगा, आप आसानी से समझ सकते हैं. कितना कठिन संघर्ष है. इन मजदूरों के मानवाधिकार का क्या. इनके साथ तो जानवरों जैसा सलूक किया जा रहा है. 

ये प्रवासी मजदूर खुशी खुशी दिवाली और छठ मनाने के लिए घर आते हैं लेकिन जाते समय उनकी नानी याद आ जाती है. ट्रेनें चलती हैं तो पूरे बिहार के लोगों के लिए अच्छी खबर मानी जाती है लेकिन यही ट्रेनें उनके बाल बच्चों को उनसे दूर कर आती हैं. एक अनुमान के मुताबिक, जनसेवा एक्सप्रेस से रोजाना 4,000 यात्री पंजाब जाते हैं, जबकि उस ट्रेन में केवल 2200 लोगों के बैठने की ही व्यवस्था है. 

बिहार से पलायन केवल चर्चा का विषय बनकर रह गया है. चर्चा से आगे इस मसले पर कभी कोई गंभीर बहस हुई ही नहीं. जातीय जनगणना और शिक्षकों की भर्ती करवाने वाले नेता लोग अपनी पीठ थपथपा रहे हैं पर ये पलायन करने वाले लोग उनके कोर इश्यू में हैं ही नहीं. बिहार से पलायन कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाई और न ही ये बनने वाली है. सरकारें भी समझती हैं कि जो लोग बाहर निकल गए उनको रिझाने का क्या. जो लोग रह गए, उनको ही बहलाया फुसलाया जाए.

कोरोना काल में जब बिहार के प्रवासी मजदूरों ने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए नंगे पैर चलकर अपने घरों का रुख किया तो सरकारों की ओर से प्रोत्साहन की एक झलक दिखी थी पर वो भी एक नुमाइश बनकर रह गई और कोरोना काल खत्म होते ही पलायन और तेज हो गया. इन प्रवासी मजदूरों के दिल पर क्या बीतती होगी, जब इनके साथ दूसरे राज्यों में गैर बराबरी का व्यवहार किया जाता है. कई राज्यों में तो घोषित रूप से कुछ अतिवादी संगठन बिहारी नाम के खिलाफ आंदोलन चलाते हैं लेकिन बिहार का सत्ता मानस है कि उसे इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं रहा. 

बिहार के सत्ताशीनों को कौन समझाए कि मजदूरों के प्रवासी होने से केवल किसी एक आदमी का प्रवासन नहीं होता, उसके साथ ज्ञान और पूंजी का प्रवाह भी होता चला जाता है. उस ज्ञान और पूंजी के अलावा शारीरिक श्रम का अगर बिहार के हित में उपयोग किया जाए तो आज बिहार हर तरह से निचले पायदान पर नहीं होता और विशेष राज्य का भीख नहीं मांग रहा होता. 

माना जाता है कि बिहार की गरीबी के चलते राज्य पिछड़ता चला गया और यहां से रोजी रोटी के लिए मजदूरों का पलायन होना शुरू हो गया. कुछ जानकारों का कहना है कि भूमि के असमान वितरण, कम कृषि उत्पादन, कई लोगों का भूमिहीन होना, कृषि पर अधिक निर्भरता, औद्योगीकरण की कमी और सामाजिक आर्थिक बाधाओं के चलते राज्य से पलायन शुरू हो गया. इन सब कारणों से राज्य की प्रति व्यक्ति आय कम होती चली गई और लोग गरीबी के शिकंजे में समाते चले गए. 

अब सवाल यह है कि राज्य से पलायन क्यों और कब शुरू हुआ. चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक महान जैसे शासकों वाला राज्य इतना गरीब कैसे होता चला गया कि उसके अपने निवासियों को रोजी रोटी के लिए दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है. यह धारणा है कि औपनिवेशिक काल से राज्य में पलायन शुरू हुआ. अंग्रेजों के समय में जब रेल नेटवर्क स्थापित हुआ, उसके बाद बिहार से पलायन में तेजी आई. उसी समय भूमि का असमान वितरण हुआ और भूमिहीन के रूप में एक बड़ा वर्ग पैदा हो गया. 

बिहार से शुरुआत में जो प्रवासन हुआ, वो बंगाल और असम की ओर हुआ. अंग्रेजी शासन की शुरुआत में कोलकाता ही राजधानी थी, इसलिए वहां अधिक अवसर देख बिहार के निवासी कोलकाता की ओर जाने लगे. उधर, अंग्रेजी शासन में ही असम में चाय बागानों में मजदूरों की अधिक जरूरत पड़ी तो बिहार के लोगों ने इसे आपदा में अवसर के रूप में लिया और वहां भी जाकर स्थापित हो गए. बंगाल में मजदूरों को कारखानों, कोयला खदानों, रेलवे, सड़क आदि के क्षेत्र में रोजगार मिला. 

एक एक बार पलायन शुरू हुआ तो होता ही चला गया और आज यह राज्य बिहार के लिए नासूर बनकर सामने खड़ा हो गया है, लेकिन सत्तानशीनों को इससे क्या फर्क पड़ता है. वो तो कभी मंडल, कभी कमंडल तो कभी जातीय जनगणना को लेकर अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं. 90 का दशक मंडल और कमंडल का रहा और उसका प्रभाव आज की राजनीति पर भी साफ दिखता है. आने वाला समय जातीय जनगणना और उससे उपजे मुद्दों का रहेगा. पलायन अपनी जगह है और राजनीति अपनी जगह. बिहार की राजनीति में दोनों में न कभी साम्य दिखा है और न ही कभी दिखने वाला है. ट्रेनें ऐसे ही आएंगी और आपके बाल बच्चों, अड़ोसी पड़ोसी, नाते रिश्तेदारों को ले जाएगी.

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