Independence Day: स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के गांव में कोई अस्पताल नहीं है. चंपारण सत्याग्रह आंदोलन की नींव रखने में अपना सर्वस्य कुर्बान कर देने वाले राजकुमार शुक्ल के गांव का हाल बदहाल है. बिहार के पश्चिम चंपारण के मुरली भैरहवा और साठी के सतवरिया गांव में आज तक विकास नहीं पहुंचा.
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Independence Day: 15 अगस्त को देश आजादी की 76 वर्षगांठ मनाएगा. इस बीच आज हम उस स्वतंत्रता सेनानी की बात कर रहे हैं, जिसने मोहन दास करमचंद्र गांधी को महात्मा की उपाधि दी थी, जिसके वजह से चंपारण सत्याग्रह आंदोलन की नींव पड़ी थी, जिसने बापू को महात्मा की उपाधि देकर महात्मा गांधी बना दिया, लेकिन उनका गांव आज भी आजादी की रोशनी के लिए तड़प रहा है! जी हां, हम बात कर हैं स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ला की, जिनका गांव आज भी बदहाल है. परिजनों को कोई सुविधा नहीं मिली है और गांव में जाने के लिए कोई सड़क नहीं है.
स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के गांव में कोई अस्पताल नहीं है. चंपारण सत्याग्रह आंदोलन की नींव रखने में अपना सर्वस्य कुर्बान कर देने वाले राजकुमार शुक्ल के गांव का हाल बदहाल है. बिहार के पश्चिम चंपारण के मुरली भैरहवा और साठी के सतवरिया गांव में आज तक विकास नहीं पहुंचा. स्वतंत्रता सेनानी के परिजन आज भी दुख दर्द और बदहाली में हैं. मुरली भैरहवा के राजकुमार शुक्ला के अथक प्रयास से जिनके जिद से महात्मा गांधी 17 अप्रैल 1917 को चंपारण आए और चंपारण सत्याग्रह आंदोलन की नींव पड़ी. स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ला उनके साथी शेख गुलाब शीतल राज, संत भगत पीर मोहम्मद, संतरावत बतक मियां जैसे कई बेनाम योद्धाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन का अलख चंपारण में जला रहे थे.
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बताया जाता है कि साल 1916 में लखनऊ अधिवेशन में महामानव स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ला मोहनदास करमचंद गांधी से मिले. उन्हें चंपारण आने का आमंत्रण दिया था. इतना ही नहीं इसके पहले कलकत्ता अधिवेशन में भी राजकुमार शुक्ला गांधी से चंपारण आने के लिए मिले थे. 17 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी चंपारण पहुंचे. जहां पर अंग्रेजों की जुल्म की हदे चंपारण के किसानों पर कहर बरपा रहा था. नील की खेती और तीन कठिया कानून किसानों पर थोप दिया गया था. एक बीघा जमीन पर किसानों को तीन कठ्ठा नील की खेती अंग्रेज जबरन किसानों से करा रहे थे. चंपारण में 70 से अधिक नील की फैक्ट्री लगी थी, अंग्रेज ऐसी ऐमन की क्रूरता किसानों पर कहर बरपा रही थी.
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महात्मा गांधी जब चम्पारण पहुंचे तो मुरली भैरहवा राजकुमार शुक्ला के गांव पहुंचे. जहां संत राउत के यहां रात में विश्राम किए, फिर महात्मा गांधी को क्रान्तिकारी भीतिहरवा ले गए. यहां महात्मा गांधी ने कस्तूरबा के लिए आश्रम बनाया गया और राजकुमार शुक्ला और उनके साथियों ने गांधी को वहां पर अपने आंदोलन का कमान गांधी को सौंप दिया. गांधी ने यहां से चम्पारण सत्याग्रह की नींव रखी और देखते ही देखते चम्पारण के किसानों का यह आंदोलन देश भर में फैल गया. अंग्रेजों का वह सूरज जो ना ढलने के नाम से जाना जाता था. वह अस्त हो गया.
आजादी की नींव रखने वाले स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ला के गांव मुरली भैरहवा में जाने की लिए सड़क नहीं है. गांव पहाड़ी, नदी, पंडई नदी के किनारे बसा है. यहां हर साल बाढ़ कहर बरपाती है. गांव कटने के कगार पर है. यहां के लोग पलायन को मजबूर हैं. नदी के किनारे औपचारिकता बस राजकुमार शुक्ला की एक प्रतिमा बना दी गई है, जिसकी कोई देख रेख करने वाला नहीं है. विडंबना यह है की जिस चम्पारण के सपूत ने गांधी को चम्पारण लाया उसका भीतिहरवा गांधी आश्रम में भी एक प्रतिमा नहीं है. जिला मुख्यालय में भी कोई प्रतिमा नहीं है.
स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ला के पौत्र मनीभूषण राय बताते है कि उनके परिवार को आजादी के बाद किसी को कोई सरकारी मदद नहीं मिली. किसी को नौकरी नहीं मिली. हम लोग जमीन दें रहे है. सरकार को स्कूल खोलने के लिए उस स्कूल का नाम राजकुमार शुक्ला के नाम से जाना जाय, लेकिन सरकार ये काम नहीं कर रही है. वहीं, भैरहवा के ग्रामीणों का कहना है कि जो गांव देश की आजादी का आधार रखा, जिस गांव के राजकुमार शुक्ला, संत राउत ने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया. वह गांव आज बदहाल है. आने जाने के लिए सड़क नहीं है. गांव कटने के कगार पर है. अस्पताल नहीं है, स्वतंत्रता सेनानियों के साथ यह क्रूर मजाक है.
राजकुमार शुक्ला को इतिहास के पन्नों में थोड़ा सा जगह देकर उनकी भी महत्ता को कम कर दी गई. आजादी के 75 वर्ष बाद भी चाहे राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार हो, चम्पारण के विकाश जितना होना चाहिए उतना ये नहीं कर सके और तो और आजादी के उन मतवालों को भी जो जगह मिलना चाहिए जो सम्मान मिलना चाहिए वो नहीं दें सके. अब उनके गांव के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा है.
रिपोर्ट:धनंजय द्विवेदी