वह कबूतर क्या उड़ा छप्पर अकेला हो गया, मां के आंखें मूंदते ही घर अकेला हो गया
चलती फिरती हुई आंखों से अजां देखी है, मैंने जन्नत तो नहीं देखी है मां देखी है
अभी जिंदा है मां मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा, मैं जब घर से निकलता हूं दुआ भी साथ चलती है
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती, बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई, मैं घर में सब से छोटा था मिरे हिस्से में मां आई
घेर लेने को जब भी बलाएं आ गईं, ढाल बनकर मां की दुआएं आ गईं
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है, मां दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
यहां लिखे गए शेर मुनव्वर राणा के द्वारा रचित हैं. Zee Bharat ने इन्हें इंटरनेट से लिया है.