मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न मांग मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शां है हयात

और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

दिल ना-उम्मीद ना सही, नाकाम ही हो है, लम्बी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है

गुलों में रंग भरे, बाद-ए-नौबहार चले, चले भी आओ गुलशन का कारोबार चले

हम शैख न लीडर न मुसाहिब न सहाफी जो खुद नहीं करते वो हिदायत न करेंगे

दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार कर, वो जा रहा है कोई शब-ए-गम गुजार कर

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तुजू ही सही नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब आज तुम याद बे-हिसाब आए