डियर जिंदगी: ‘असहमति’ के बीच आनंद सूत्र!
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डियर जिंदगी: ‘असहमति’ के बीच आनंद सूत्र!

ऑफिस के द्वंद्व कब तक घर से दूर रहेंगे. रहेंगे तो कैसे रहेंगे. वहां के संकट हम पर चौबीस घंटे हावी न रहें, इसके लिए दोनों जीवन के बीच संतुलन के प्रयास तेज करने होंगे.

डियर जिंदगी: ‘असहमति’ के बीच आनंद सूत्र!

निजी और प्रोफेशनल दोनों जीवन में संतुलन के साथ सुख कायम रहे यह हर किसी की इच्‍छा होती है. लेकिन क्‍या इच्‍छा से सबकुछ संभव है. इच्‍छा मात्र से कुछ होने से रहा, हम इच्‍छा के लिए अंतर्मन से कैसी प्रबलता रखते हैं, आनंद मार्ग पर उससे ही यात्रा संभव है. जबसे सरकार ने समाज को निजी अवसरों की ओर धकेला है, नौकरियों से अपने हाथ वापस खींचे हैं. समाज में नए किस्‍म के रिश्‍तों का जन्‍म हुआ है. अब कोई नौकरी स्‍थायी नहीं है. स्‍थायी और नौकरी दोनों शब्‍द जो कभी एक-दूसरे के पूरक हुआ करते थे, एक दशक में विरोधी सरीखे हो गए हैं. निजी क्षेत्र के पथरीले पथ पर कब दो लोगों के बीच असहमति नाराजगी में बदल जाए कहना मुश्किल होता जा रहा है.

इस अनिश्चितता, संकट और परिवर्तन से खुद को बचाए रखना मुश्किल है. इसका जिंदगी पर सबसे अधिक नकारात्‍मक असर पड़ रहा है. युवा तीस से चालीस तक पहुंचते पहुंचते थकते से दिख रहे हैं. उनका निजी जीवन सेहत के खराब स्‍तर तक पहुंचने के साथ उनके रिश्‍तों, घर-परिवार की दहलीज पर भी असर डाल रहा है.

ऑफिस के द्वंद्व कब तक घर से दूर रहेंगे. रहेंगे तो कैसे रहेंगे. वहां के संकट हम पर चौबीस घंटे हावी न रहें, इसके लिए दोनों जीवन के बीच संतुलन के प्रयास तेज करने होंगे. काम के बढ़ते घंटे दांपत्‍य जीवन के साथ अब बच्‍चों और परिवार की बुनावट और अंतर्संबंधों को प्रभावित कर रहे हैं.

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इसके लिए जो सबसे कारगर फॉर्मूला कंपनियों के बड़े- बड़े दिग्‍गज सुझाते हैं, वह है, ‘स्‍विच ऑन, स्विच ऑफ’ मोड. ऑफि‍स आते ही घर के संकट भूलिए और घर जाते ही ऑफि‍स के संकट भूलिए. तकनीक का उतना ही उपयोग जितने से जीवन सरल हो. उससे आगे जो भी करेंगे, उससे जीवन पर तनाव की छाया गहराएगी. क्‍योंकि समय तो चौबीस घंटे के चक्र में ही मिलता है.

हम जैसे ही एक छोर पर समय के उपयोग को लेकर लापरवाह होते हैं, वह दूसरे छोर पर प्रभाव दिखा देता है. मजेदार बात है कि हम दस घंटे ऑफिस में काम करते हैं. घर पहुंचते ही कहते हैं परिवार के लिए समय नहीं, ले‍किन सोशल मीडिया पर व्‍यस्‍त हो जाते हैं. किसके लिए!

यह फेसबुक, ट्विटर और इंस्‍टाग्राम की दुनिया असल में रिश्‍तों की सबसे बड़ी दुश्‍मन है. इस अर्थ में यह सोशल नहीं अ'सोशल मीडिया है. जहां लोग उन रिश्‍तों की तलाश में भटक रहे हैं, जो असल जिंदगी में टूट और छूट गए हैं.

यह तो संतुलन का सूत्र नहीं हुआ. उन घरों में जहां पति-पत्‍नी दोनों कामकाजी हैं, यह तकनीक, सोशल मीडिया में व्‍यस्‍तता जिंदगी में दरार से आगे खाई का काम कर रही है. क्‍योंकि उनके पास परंपरागत परिवारों की स्‍नेह छांव, बड़ों का साथ नहीं है. यह इस वजह से भी है क्‍योंकि हम एकल और संयुक्‍त परिवार के बीच संक्रमण काल से गुजर रहे हैं.

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निजी और प्रोफेशनल जिंदगी को समझने के लिए एक छोटा-सा किस्‍सा सुनिए. यह एक ऐसे युवा की असली कहानी है जो एक मीडिया कंपनी में कार्यरत था. उसका किसी बात पर अपने मैजेजर से विवाद हो गया. यह विवाद ऐसा था, जिसे आसानी से सुलझाया जा सकता था लेकिन इसी दौरान उसके पास बाहर से दूसरी नौकरी का ऑफर आ गया. उसने भारी विवाद के साथ कंपनी छोड़ दी. उसके बाद उसने नई कंपनी में काम शुरू किया. इसी दौरान उसने एक नए अपार्टमेंट में मकान खरीद लिया. संयोग से उसके पड़ोस का मकान उसके पूर्व बॉस ने खरीद लिया. जिसके खिलाफ उसने निगेटिविटी का स्‍वर घर तक पर बुलंद कर रखा था. इसलिए परिवार के सामने विचित्र संकट खड़ा हो गया. क्‍योंकि उन बॉस का परिवार बेहद मिलनसार था. और बॉस ने इस युवा के बारे में कोई बात घर पर नहीं की थी. वह एक सुलझे हुए, मैच्‍योर प्रोफेशनल थे. घर उनके लिए केवल घर था.

न चाहते हुए भी इस युवा के परिवार को संबंध सामान्‍य बनाने पड़े. लेकिन उसकी पहले की आलोचना बच्‍चों तक के दिमाग में भरी हुई थी सो एक दिन बातों बातों में वह पूर्व बॉस की पत्‍नी तक जा पहुंची. जो उन्‍हें बेहद नागवार गुजरी.

इसी दौरान कुछ ऐसा हुआ कि पूर्व बॉस उसकी कंपनी में नए बॉस हो गए. और नए घर की ईएमआई और अच्‍छी कंपनी होने के नाते इन सज्‍ज्‍न के लिए दूसरे विकल्‍प तलाशने मुश्किल हो गए. अब क्‍या करें.

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इस युवा को पहली बार महसूस हुआ कि उसने पहले अनजाने में छोटी-छोटी बातों का बड़ा बवंडर बना लिया था. ऐसे प्रसंगों को घर तक ले जाने की क्‍या जरूरत थी. काश! उसने ‘स्‍विच ऑन, स्विच ऑफ’ मोड जैसी चीजों के महत्‍व को समझा होता.

इस बीच दोनों परिवारों के बीच कटुता इतनी बढ़ गई कि इस युवा को घाटा उठाकर, परिवार के लिए और खुद अपने लिए हर दिन की ‘आंखों की शर्म’ से बचने के लिए अपना घर वहां से बेचने का निर्णय करना पड़ा. नौकरी तो जैसे-तैसे चलती रही.

‘डियर जिंदगी’ से यह किस्‍सा इस युवा ने ही साझा किया है. वह हमारे नियमित पाठक हैं. वह चाहते हैं कि हम घर- ऑफि‍स में संतुलन जितना जल्‍दी सीखेंगे, जिंदगी के लिए उतना बेहतर होगा. क्‍योंकि नौकरियों के संकट और चुनौतियां समय के साथ मुश्किल ही होंगी.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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