क्या हम बाबरी के रुदन से आगे बढ़ पाएंगे?
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क्या हम बाबरी के रुदन से आगे बढ़ पाएंगे?

हिंदुओं के सबसे अधिक प्रिय जिन राम का नाम हर सातवें-आठवें हिंदू के नाम में आता ही है, उनके जन्मस्थान पर एक मंदिर था, जिसको तोड़कर एक मस्जिद बनी. हिंदू कोई 30000 मस्जिदें नहीं मांग रहे थे. वह उनके लिए महत्वपूर्ण इस मंदिर को ही मांग रहे थे. 

क्या हम बाबरी के रुदन से आगे बढ़ पाएंगे?

राम मंदिर से जुड़ी 6 दिसंबर 1992 की घटना का भी आज पटाक्षेप हो गया. न्यायालय ने बाबरी ढांचा गिराने को षड़यंत्र मानने से इनकार कर दिया. उस समय के इतिहास के प्रत्यक्षदर्शी होने के नाते मेरे जैसे हजारों लाखों लोग यह जानते थे की बाबरी का गिरना षड्यंत्र नहीं था. एक उफान था हिंदू रोष का, उस तथाकथित सेक्युलर बौद्धिक आतंक के विरुद्ध जिसने तमाम सबूतों के बावजूद उस स्थान और मंदिर को राम जन्मभूमि मानने से इनकार किया. 

इतना ही नहीं, अयोध्या की आम जनता, मुस्लिम समाज भी इस बात के लिए तैयार था कि यह जगह हिंदुओं को सौंप देनी चाहिए. लगभग पांच सौ साल के संघर्ष का इतिहास था. बाबरी का उपयोग स्थानीय मुसलमान भी नहीं करते थे. सामूहिक स्मृति इसे राम जन्मभूमि ही मानती थी, पुराने सरकारी दस्तावेज भी. परंतु स्वयंस्तुतित प्रसिद्द मार्क्सवादी इतिहासकार कैसे मानते? उन्होंने 1947 से एक इतिहास गढ़ना शुरू किया था कि मुगल बड़े अच्छे संस्कारी राजा थे और उन्होंने कोई अत्याचार, धर्म परिवर्तन, स्त्रियों का शोषण, मंदिर तोड़ना इत्यादि कुछ नहीं किया था. शताब्दियों की हिंदू व्यथा का मजाक उड़ाना और समझौता न हो इसके लिए मुसलमान समाज को लगातार भड़काना जारी रहा. 

हिंदूओं ने अपना धैर्य नहीं खोया
हिंदुओं के सबसे अधिक प्रिय जिन राम का नाम हर सातवें-आठवें हिंदू के नाम में आता ही है, उनके जन्मस्थान पर एक मंदिर था, जिसको तोड़कर एक मस्जिद बनी. हिंदू कोई 30000 मस्जिदें नहीं मांग रहे थे. वह उनके लिए महत्वपूर्ण इस मंदिर को ही मांग रहे थे. आजादी के बाद से सतत कानूनी संघर्ष चलता रहा, टलता रहा, परंतु हिंदूओं ने अपना धैर्य नहीं खोया. परंतु 1990 में हुई अंधाधुंध गोलीबारी में सैंकड़ों राम भक्तों का मारा जाना, और उसपर किसी को अफसोस न होना, बल्कि गर्व होना. फिर सभी उपायों के बावजूद उनकी मांग को अलग-अलग मार्ग होने पर भी टालते रहना और राम विरोधियों द्वारा उन्हें टोकना, उन्हें नीचा दिखाना सभी के दिलों में एक टीस छोड़ गई थी. 

अगर ऐसा होता तो...
वह उफान 6 दिसंबर को दिखा. यदि हिंदू द्वेष मुसलमान समाज के विरुद्ध होता, तो और भी सैंकड़ों मस्जिदें अयोध्या में हैं, एक भी उस दिन न बचती. पर सत्य कोई हिंदू द्वेषी कैसे स्वीकार करे? उन्हें रोकने वाले नेताओं पर ही राम विरोधियों ने शिकायतें दर्ज कर दीं. उसकी समाप्ति आज हुई, उन्हें निर्दोष साबित करते हुए. 

कांग्रेस ने लिब्राहन आयोग बिठाया
राजनीति इतनी द्वेषपूर्ण है कि कांग्रेस सरकार ने एक लिब्राहन आयोग बिठाया, इसी तथाकथित षड्यंत्र का पता लगाने के लिए. 18 वर्ष तक यह आयोग तहकीकात करता रहा. 2004 में कांग्रेस सरकार को रपट सौंपी गई. पर कभी उसे जनता के सामने रखा नहीं गया. क्यों? कोई उत्तर नहीं मिलेगा.

यह मुकदमा अर्थहीन था
वैसे भी जब उच्चतम न्यायालय ने यह मान लिया कि इस स्थान पर पहले भव्य मंदिर था, जिसे तोड़कर बाबरी बनाई गई, तो 6 दिसंबर को तो राम भक्तों ने अपना ही मंदिर तोड़कर नया मंदिर बनाने का काम शुरू किया था. अतः यह मुकदमा वैसे ही अर्थहीन था. ऐसे हिंदू उस समय भी बड़ी संख्या में थे जो मानते थे कि बाबरी ढांचा न टूटता तो अच्छा था. परंतु इतिहास को नियंत्रित करना किसी के हाथ में नहीं. परिस्थितियां ऐसी बनीं कि लोग देखते रह गए.

अब यह रुदन समाप्त होना चाहिए
राम मंदिर के विरोधियों ने स्पष्ट कहा था कि यदि न्यायालय मान ले कि मंदिर था, तो हम जगह छोड़ देंगे. न्यायालय का सम्मान करेंगे. परंतु हम देख रहे हैं कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बावजूद जिहादी रुदन जारी है. अब आज के निर्णय के बाद भी मुसलमान समाज को भड़काने का काम शुरू हो ही चुका है. क्योंकि समाज में द्वेष समाप्त हो, यह तो वामपंथियों और जिहादियों के लिए अनर्थ है. ये ऐसे जहरीले पौधे हैं जो पनपने के लिए विपरीत परिस्थतियां ही चाहते हैं. परंतु मुझे लगता है कि जनता सयानी है, वह इस रुदन को पीछे छोड़ना चाहती है. 
इन सेक्युलर अनुदार उदारवादी तबके के घटते प्रभाव से उनके समर्थकों को यह समझ लेना चाहिए कि देश अब इस अंध विरोध से आगे बढ़ना चाहता है. देश गर्व के साथ नए भारत के निर्माण के लिए अग्रसर है. अतः यह रुदन समाप्त हो, यह देश के लिए उत्तम होगा. 

(लेखक स्तंभकार, RSS पर PhD हैं साथ ही RSS पर 4 पुस्तकें भी लिख चुके हैं.)
(लेख में व्यक्त विचार लेखक ने निजी विचार हैं.)

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