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लखनऊ: उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में गुरुवार को नतीजे आने शुरू होने तक तस्वीर एकदम सही लग रही थी, लेकिन बाद में समाजवादी पार्टी (SP) और राष्ट्रीय लोक दल (RLD) का गठबंधन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विफल हो गया और इसने सभी गणनाओं को बिगाड़ दिया. सूत्रों के अनुसार, सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ किसानों के आंदोलन के केंद्रबिंदु वाले क्षेत्र में गठबंधन के उम्मीद से कम प्रदर्शन का एक मुख्य कारण उम्मीदवारों का गलत चयन और उम्मीदवारों की अदला-बदली थी.
उन्होंने कहा कि 'समाजवादी पार्टी ने रालोद के कुछ उम्मीदवारों को 'गोद' लिया और कुछ रालोद समर्थकों को अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह दिया. इससे उन मतदाताओं के मन में भ्रम पैदा हुआ जो सपा के आचरण को पसंद नहीं करते थे. जाटों ने रालोद को केवल उन्हीं सीटों पर वोट दिया, जहां उसके अपने चुनाव चिह्न् पर उम्मीदवार थे, लेकिन वे सपा उम्मीदवारों के लिए नहीं गए. उन्होंने रालोद नेताओं को भी वोट नहीं दिया, जिन्होंने सपा के चुनाव चिह्न पुर चुनाव लड़ा था. हालांकि हमें लगता है कि मतदाताओं को इस बात का अहसास नहीं होगा लेकिन हम गलत थे.'
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इसके अलावा, एक अन्य कारक जिसने जाटों को सपा के खिलाफ खड़ा कर दिया, वो मुजफ्फरनगर दंगों की यादें थीं, जिन्हें भाजपा प्रचारकों द्वारा बार-बार उकसाया गया था. जयंत चौधरी के लिए इन चुनावों में दांव ऊंचे थे, क्योंकि उनके पिता अजीत सिंह की मृत्यु के बाद ये उनका पहला चुनाव था. उन पर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतकर पार्टी को फिर से पटरी पर लाकर खुद को साबित करने का दायित्व था और यही कारण है कि चुनावों में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी.
हालांकि, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने हर चुनावी सभा में मतदाताओं को यह बताने के लिए एक बिंदु बनाया कि वो साफतौर पर एक अच्छे साथी थे और ये उन लोगों के लिए अच्छा नहीं था जो रालोद के पक्ष में थे. रालोद के चुनावी इतिहास से पता चलता है कि यूपी विधान सभा चुनावों में जीती गई सीटों की संख्या के मामले में उसका अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2002 में था, जब उसने भाजपा के साथ गठबंधन में 38 में से 14 सीटों पर जीत हासिल की थी.
चुनाव लड़ी गई सीटों में इसका वोट शेयर भी 2002 में सबसे अधिक 26.82 प्रतिशत था, हालांकि कुल वैध वोटों के मुकाबले वोट शेयर केवल 2.48 प्रतिशत था, जो कि 2007 में पार्टी को मिले 3.70 प्रतिशत वोट शेयर से कम था. इस चुनाव में रालोद ने 254 में से 10 सीटों पर अपने दम पर जीत हासिल की.
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पार्टी 2017 के विधानसभा चुनावों में अकेले चली गई और बागपत में केवल एक सीट, यानी छपरौली जीतने में सफल रही, लेकिन अकेले विधायक सहेंद्र सिंह रमाला बाद में 2018 में भाजपा में शामिल हो गए.
(इनपुट- आईएएनएस)
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