प्रयागराज के संगम तट पर इन दिनों महाकुंभ की रौनक है. इस वक्त यह शहर की आध्यात्मिक चेतना का शहर बना हुआ है.
यहां आस्था का महा जमघट है और इसकी चर्चा पूरे विश्व में हो रही है. कुंभ मेला भारत का वो धार्मिक आयोजन है.
इस आयोजन की लिखित ऐतिहासिक प्राचीनता भी कम से कम 3200 साल पुरानी है, जो पूरे विश्व में प्रचलित किसी भी धार्मिक आयोजन की नहीं है.
जब अंग्रेज भारत आए थे, तब उन्होंने इस बड़े आयोजन को बहुत चौंकाने वाला माना था और इसकी गतिविधियों को वह दीदे फाड़कर देखते थे.
लेखक धनंजय चोपड़ा ने अपनी किताब 'भारत में कुंभ' में अंग्रेजों के समय यानी ब्रिटिश कालीन कुंभ मेले के हाल और ब्योरा रखा है.
भारत में कुंभ में लिखा गया है कि अंग्रेजों के लिए कुंभ आयोजन किसी कौतूहल से कम नहीं था. ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इसे ग्रेट फेयर कहते थे.
किताब की मानें तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने मेले को आमदनी बढ़ाने का जरिया माना था. ऐसे में उन्होंने इस मेले पर ध्यान देना शुरू किया.
शुरुआत में कई अधिकारी समेत ईसाई मिशनरी के लोग भी इस महामेले को समझने जाया करते थे. शायद अंग्रेजों की सोच इस बहुत बड़े आयोजन को भी कैप्चर करने की रही होगी.
अंग्रेज अधिकारी ने कुंभ को लेकर अपनी-अपनी रिपोर्ट भी तैयार की. इस रिपोर्ट के आधार पर आगे चलकर कंपनी की बंगाल आर्टिलरी के मेजर जनरल थॉमस हार्डविक ने हरिद्वार कुंभ की रणनीति बनाई थी.
रिपोर्ट की मानें तो 1796 के हरिद्वार कुंभ मेले में 20-50 लाख लोग इकट्ठा हुए थे, जिसमें शैव गोसाई की संख्या सबसे ज्यादा थी. बाद में वैष्णव बैरागियों की संख्या थी.
गोसाईं ही मेले का प्रबंध संभाले हुए थे और उनके हाथों में तलवारें और ढाल हुआ करती थीं. रिपोर्ट में लिखा था कि महंत लोगों की परिषद नियमित रूप से लोगों की परेशानियों और शिकायतों को सुनती थी और उनका हल सुझाती थी.
यही लोग कर (टैक्स) लगाते और उसे इकट्ठा भी करते थे. हार्डविक ने अपने आलेख में मेले के दौरान सिख उदासीनों और शैव गोसाई के बीच संघर्ष का भी विवरण दिया है.
इस संघर्ष में 500 गोसाई और उनके एक महंत मौनपुरी मारे गए थे. हार्डविक ने लिखा कि इस संघर्ष पर विराम तभी लगा, जब ब्रिटिश कैप्टन मूरे ने सिपाहियों की दो कंपनी वहां भेजी.
इस घटना के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी प्रशासन चौकन्ना हो गया था. 1808 के कुंभ में पहली बार मेला अफसर के रूप में एक अंग्रेस अधिकारी फेलिक्स विंसेट रैपर की तैनाती की गई.
कहते हैं कि किसी कुंभ मेले में मेला अधिकारी तैनात होने की यह पहली शुरुआत थी. ब्रिटिश सैनिक व लेखक थॉमस स्किनर 1832 में अपनी पुस्तक 'एक्सकर्सस इन इंडिया' में प्रयाग के मेले का बहुत संजीदा वर्णन किया है.
रिपोर्ट्स में लिखा है कि यह एक धार्मिक मेला था. यहां कोई वस्तु बिकती हुई नहीं मालूम हुई. सिर्फ स्नान-ध्यान और पूजा-पाठ ही वहां का मुख्य कार्य-कलाप था.
बहुत से तख्त आठ-दस फुट के लगभग चौकोर, जिनमें ऊंचे-ऊंचे पाए लगे थे, पानी में (किनारे के तट) रखे हुए थे. उन पर बड़ी-बड़ी छतरियां लगी थीं.
जिनके नीचे लोग बैठकर विश्राम करते थे. इसके बीच पंडों के आसन थे. यह आने वाले तीर्थयात्रियों के अध्यात्मिक गुरु भी थे. वे अपनी जगह से हिलते न थे.
उनके हाथ में मालाएं थीं और वे अपने यजमानों की पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति भी करते थे. यह एक बड़ा ही मनोरंजक दृश्य था.
यहां बताई गई सारी बातें धार्मिक मान्यताओं पर आधारित हैं. इसकी विषय सामग्री और एआई द्वारा काल्पनिक चित्रण का जी यूपीयूके हूबहू समान होने का दावा या पुष्टि नहीं करता.