बाबरी विध्वंस केस: 28 वर्षों तक चली सुनवाई, 351 गवाहियां, 2500 पन्नों की चार्जशीट, सभी 32 आरोपी बरी
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बाबरी विध्वंस केस: 28 वर्षों तक चली सुनवाई, 351 गवाहियां, 2500 पन्नों की चार्जशीट, सभी 32 आरोपी बरी

बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट ने सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया. 28 वर्ष चले इस केस में 351 गवाहियां हुईं, सीबीआई ने 2500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की. कोर्ट का फैसला भी 2000 पन्नों का रहा.

लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह और उमा भारती समेत सभी 32 आरोपियों को विशेष सीबीआई कोर्ट ने बाबरी विध्वंस केस में बाइज्जत बरी कर दिया.

लखनऊ: बाबरी मस्जिद विध्वंस केस में विशेष सीबीआई अदालत ने 28 वर्षों बाद आज फैसला सुना दिया. अयोध्या में 28 साल पहले 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा दिया था. इस केस में वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती समेत कई अन्य नेता आरोपी बनाए गए थे. सीबीआई ने इस केस में कुल 49 लोगों को आरोपी बनाया था, जिनमें बाला साहब ठाकरे, अशोक सिंहल सहित 17 आरोपी अब इस दुनिया में नहीं हैं.

सभी आरोपी कोर्ट से बाइज्जत बरी किए गए
स्पेशल सीबीआई कोर्ट के जज सुरेंद्र कुमार यादव ने केस का फैसला पढ़ते हुए कहा कि बाबरी विध्वंस की घटना पूर्वनियोजित नहीं बल्कि आकस्मिक थी. अराजक तत्वों ने ढांचा गिराया था और आरोपी नेताओं ने इन लोगों को रोकने का प्रयास किया था. आरोपियों के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं और सीबीआई की ओर से जमा किए गए ऑडियो और वीडियो सबूतों की प्रमाणिकता की जांच नहीं की जा सकती है. इसलिए केस के सभी 32 आरोपी बाइज्जत बरी किए जाते हैं. फैसला सुनाने के साथ ही जज एसके यादव सेवानिवृत्त हो गए. आपको बता दें कि वह एक वर्ष पहले आज ही के दिन सेवानिवृत्त हो गए थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ​बाबरी विध्वंस के फैसले तक उनको सेवा विस्तार दे दिया था.

28 वर्ष तक चले इस केस में 351 गवाहियां हुईं
आपको बता दें कि 28 वर्ष चले इस केस में 351 गवाहियां हुईं, सीबीआई ने 25 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की. केंद्र ने बाबरी विध्वंस के 10 दिन बाद यानी 16 दिसंबर 1992 को ​लिब्राहन आयोग का गठन कर जांच का जिम्मा सौंपा. आयोग को 3 महीने में जांच रिपोर्ट सौंपनी थी, लगे 17 साल. ​बाबरी विध्वंस केस की सुनवाई पूरी हो गई लेकिन लिब्राहन आयोग की जांच रिपोर्ट का कहीं जिक्र तक नहीं आया.

28 वर्ष पहले बाबरी केस में 10 मिनट के अंदर दो FIR दर्ज हुईं
इस मामले में पहली एफआईआर (संख्या 197/92) प्रियवदन नाथ शुक्ल ने 6 दिसंबर 1992 की शाम 5:15 बजे अज्ञात कारसेवकों के खिलाफ आईपीसी की धारा 395, 397, 332, 337, 338, 295, 297 और 153ए के तहत दर्ज कराई थी. इसके 10 मिनट बाद ही दूसरी एफआईआर (संख्या 198/92) रामजन्मभूमि थाने के इंचार्ज गंगा प्रसाद तिवारी की तरफ से आठ नामजद लोगों के खिलाफ दर्ज कराया गया, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, विनय कटियार, अशोक सिंघल, साध्वी ऋतंभरा, विष्णु हरि डालमिया और गिरिराज किशोर को आरोपी बनाया गया. इनके खिलाफ आईपीसी की धारा 153ए, 153बी, 505 के तहत एफआईआर दर्ज हुई थी. जनवरी 1993 में 47 अन्य मुकदमे दर्ज कराए गए, जिनमें पत्रकारों से मारपीट और लूटपाट जैसे आरोप थे.

सीबीआई के संयुक्त चार्जशीट को आडवाणी ने दी कोर्ट में चुनौती
बाबारी विध्वंस केस की सुनवाई के लिए 1993 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर लखनऊ में विशेष अदालत बनाई गई थी, जिसमें मुकदमा संख्या 197/92 की सुनवाई होनी थी. इस केस में हाईकोर्ट की सलाह पर 120बी की धारा जोड़ी गई, मूल एफआईआर में यह धारा नहीं थी. सीबीआई ने अक्टूबर 1993 में पहली के साथ ही दूसरी एफआईआर को जोड़कर संयुक्त चार्जशीट फाइल की.

चार्जशीट में बाला साहब ठाकरे, नृत्य गोपाल दास, कल्याण सिंह, चम्पत राय समेत कुल 49 नाम शामिल थे. सीबीआई द्वारा दोनों एफआईआर में संयुक्त चार्जशीट फाइल करने के फैसले को लालकृष्ण आडवाणी समेत अन्य आरोपियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी. इनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने सीबीआई को आदेश दिया कि वह एफआईआर संख्या 198/92 में चार्जशीट रायबरेली कोर्ट में फाइल करे.

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केस में सीबीआई ने 2003 में 2500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की
सीबीआई ने 2003 में 2500 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की, लेकिन आपराधिक साजिश की धारा 120 बी नहीं जोड़ सकी. रायबरेली कोर्ट ने दूसरी एफआईआर में आरोपी बनाए गए आठ लोगों को सबूत के आभाव में बरी कर दिया. इस फैसले के खिलाफ दूसरा पक्ष हाईकोर्ट चला गया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2005 में रायबरेली कोर्ट का आठ आरोपियों को बरी करने का फैसला रद्द करते हुए आदेश दिया कि इनके खिलाफ मुकदमा चलता रहेगा. इसके बाद केस में ट्रायल शुरू हुआ और 2007 में पहली गवाही हुई. कुल 994 गवाहों की लिस्ट थी, जिनमें 351 की गवाही हुई. पहली एफआईआर (संख्या 197/92) में 294 गवाहियां हुईं, वहीं दूसरी एफआईआर यानी (संख्या 198/92) में 57 लोगों ने गवाही दी. 

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के पक्ष में सुनाया फैसला
इलाहाबाद हाईकोर्ट के दोनों एफआईआर में अलग-अलग कोर्ट में सुनवाई के फैसले को सीबीआई ने 2011 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. सीबीआई ने अपनी याचिका में सर्वोच्च अदालत से मांग की कि दोनों एफआईआर में संयुक्त रूप से लखनऊ में बनी विशेष अदालत में ट्रायल हो और आपराधिक साजिश की धारा जोड़ने की अनु​मति मिले.

करीब 6 वर्षों तक सीबीआई की इस याचिका पर सुनवाई चलती रही. सुप्रीम कोर्ट ने जून 2017 में सीबीआई के पक्ष में फैसला सुनाते हुए दोनों मुकदमों में ट्रायल स्पेशल सीबीआई कोर्ट लखनऊ में कराने और आपराधिक साजिश की धारा बढ़ाने की अनुमति दे दी. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केस की सुनवाई 2 वर्षों के अंदर पूरी करने का आदेश दिया. अप्रैल 2019 में वह समय सीमा खत्म हो गई, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई अदालत को फिर से नौ महीने का वक्त दिया. 31 अगस्त तक फैसला आना था. कोरोना संकट को देखते हुए यह समय सीमा 30 सितंबर तक बढ़ा दिया गया था.

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