DNA ANALYSIS: ऐलोपैथी-आयुर्वेद के टकराव की INSIDE STORY, पुराना है संघर्ष
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DNA ANALYSIS: ऐलोपैथी-आयुर्वेद के टकराव की INSIDE STORY, पुराना है संघर्ष

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के बीच संघर्ष आज का नहीं है. बल्कि ये पिछले काफी समय से चलता आ रहा है. इसका एक कारण ये भी कि लोग आयुर्वेद को धर्म से जोड़कर देखते हैं. आइए शुरुआत से समझते हैं इनका इतिहास. 

DNA ANALYSIS: ऐलोपैथी-आयुर्वेद के टकराव की INSIDE STORY, पुराना है संघर्ष

नई दिल्ली: कोरोना महामारी के इस संकट काल में आज एक प्रश्न लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है. वो प्रश्न ये है कि इलाज की आधुनिक चिकित्सा पद्धति, जिसे अंग्रेजी में मॉडर्न मेडिकल प्रेक्टिस या ऐलोपैथी (Allopathy) कहा जाता है, वो सही है? या इलाज की सबसे प्रचानी पद्धति आयुर्वेद (Ayurveda) सही है. इस पूरे विषय को लेकर आज आयुर्वेद और ऐलोपैथी में टकराव की स्थिति है. लेकिन शायद आपको पता नहीं होगा कि ये टकराव नया नहीं है. आज हम आपको इसी के बारे में बताएंगे.

16वीं सदी में हुई ऐलोपैथी की शुरुआत

ऐलोपैथी और आयुर्वेद के बीच ये संघर्ष काफी पुराना है. ऐसा माना जाता है कि भारत में आधुनिक चिकित्सा पद्धति यानी ऐलोपैथी का इस्तेमाल 16वीं सदी से शुरू हुआ था. तब पश्चिमी भारत के तटीय इलाकों पर पुर्तगाल का कब्जा था, और पुर्तगाल से भारत आने वाले जहाजों में व्यापारियों के साथ डॉक्टर भी हुआ करते थे. पुतर्गाल से आए इन डॉक्टरों के माध्यम से ही भारत में ऐलोपैथी पद्धति का इस्तेमाल शुरू हुआ. 

जब आचार्य और वैद्य को ही माना जाता था भगवान

हालांकि इलाज की ये पद्धति तब भी काफी सीमित थी. आप कह सकते हैं कि 16वीं सदी तक भारत में इलाज की पश्चिमी पद्धतियां इस्तेमाल नहीं होती थी. उस समय डॉक्टर भी नहीं होते थे. बल्कि आचार्य, वैद्य, ऋषि और हकीम लोगों का इलाज करते थे, और इलाज के तौर तरीके भी उस समय काफी अलग थे. ये वो समय था, जब हमारे देश में डॉक्टरों को नहीं बल्कि आचार्यों और वैद्य को भगवान माना जाता था.

कब शुरू हुआ ऐलोपैथी और आयुर्वेद का संघर्ष

ऐसा कहा जाता है कि उस दौरान में भारत में जितनी भी बड़ी बीमारियां फैली, उनसे लाखों लोगों की मौत हुई. इन बीमारियों की वजह से ही ऐलोपैथी को हमारे देश में प्रवेश मिला और लोगों का भरोसा इस इलाज पद्धति की तरफ बढ़ा. इस तरह से भारत में ना सिर्फ इलाज के तौर तरीके बदले बल्कि शासन का केंद्र भी बदलना शुरू हो गया. ये उस समय की बात है, जब भारत अंग्रेजों का गुलाम बना. तभी से आयुर्वेद और ऐलोपैथी के बीच संघर्ष शुरू हो गया. जो आज तक जारी है.

योग गुरु रामदेव के बयान से खड़ा हुआ विवाद

आज जब भारत कोरोना जैसी महामारी से संघर्ष कर रहा है और इससे अकेले भारत में 3 लाख मौतें हो चुकी हैं, तब इलाज की पद्धति को लेकर लोगों के मन में एक धर्म संकट खड़ा हो गया है. और ये धर्म संकट खड़ा हुआ, योग गुरु रामदेव (Ramdev) के एक बयान के बाद, जिसमें उन्होंने ऐलोपैथी पर प्रश्न खड़े किए थे, और फिर अपने बयान को वापस भी ले लिया था. योग गुरु रामदेव के बयान के बाद ही इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (Indian Medical Association) ने इस पर नाराजगी जताई और ये विवाद अब भी थमा नहीं है.

हालांकि आज हम इस विवाद पर नहीं बल्कि इस विषय पर आपके साथ चर्चा करना चाहते हैं. क्योंकि ये विषय देश के 135 करोड़ लोगों से जुड़ा है. आज हम आपको बताएंगे कि ऐलोपैथी और आयुर्वेद के बीच टकराव यानी युद्ध कितना पुराना है, और इस युद्ध की जड़ में क्या कारण हैं. लेकिन इस विषय को समझने के लिए पहले आपको कुछ आंकड़ों पर ध्यान देना होगा.

भारत में किस पद्धति के कितने डॉक्टर्स? जानें

भारत में इस समय ऐलोपैथी के कुल डॉक्टर्स की संख्या 12 लाख 1 हजार 354 है. ये आंकड़े 2019 के हैं. इस हिसाब से देखें तो लगभग 1125 लोगों पर एक ऐलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि आयुष चिकित्सकों की संख्या 8 लाख ही है, जिनमें से आयुर्वेद के चिकित्सकों की संख्या लगभग चार लाख है. होमोपैथी (Homeopathy) के 2 लाख 80 हजार चिकित्सक हैं, यूनानी पद्धति से इलाज करने वाले चिकित्सक 47 हजार हैं. इलाज की एक और प्राचीन पद्धति 'सिद्ध' के 8 हजार चिकित्सक हैं और नेचुरोपैथी के लगभग 1700 चिकित्सक हैं.

जो पद्धति लोगों की जान बचाए वही है बेस्ट 

इसमें कोई शक नहीं कि अब लोग ऐलोपैथी की पद्धति से ही अपना इलाज कराते हैं. बुखार होता है तो दवाइयां लेते हैं, तबियत बिगड़ने पर अस्पताल जाते हैं और डॉक्टरों से अपना इलाज कराते हैं, और इसकी अपनी एक वजह भी है. ऐलोपैथी यानी आधुनिक चिकित्सा पद्धति से हर साल पूरी दुनिया में 20 लाख से अधिक लोगों की जानें बचाई जाती हैं. अनुमान है कि वर्ष 2000 से 2030 के बीच 10 बीमारियों से होने वाली 7 करोड़ मौतें ऐलोपैथी दवाइयों की वजह से टल जाएंगी. यानी इन लोगों को नया जीवन मिलेगा. हम कहते भी यही हैं कि इलाज की जो पद्धति जान बचाए, वही सही है. 

ऐलोपैथी और आयुर्वेद का कैसा रहा इतिहास?

लेकिन सवाल है कि फिर ये सारा विवाद क्यों है और ये विवाद कितना पुराना है? इसे समझने के लिए आपको ऐलोपैथी और आयुर्वेद के इतिहास में हमारे साथ चलना होगा. पहले आपको एलोपैथिक इलाज के बारे में बताते हैं. वर्ष 1810 में जर्मनी के महान होमोपैथिक चिकित्सक सैमुअल हानीमहन (Samuel Hahnemann) ने पहली बार ऐलोपैथी शब्द का इस्तेमाल किया था. ये शब्द ग्रीक भाषा के अलॉस (Allos) और पैथॉज (Pathos) शब्द से मिल कर बना है. अलॉस का मतलब होता है डिफरेंट मतलब अन्य या फिर अलग. और पैथॉज का मतलब होता है बीमारी.

ऐलोपैथी और होमोपैथी में क्या फर्क है?

ऐलोपैथी शब्द इसलिए इस्तेमाल हुआ क्योंकि होमोपैथिक इलाज की पद्धति काफी अलग है. जैसे होमोपैथिक इलाज में किसी मरीज को बुखार होता है तो उसे ऐसी दवाई दी जाती है, जिससे बुखार और बढ़े. होमोपैथी में बीमारी के कारण को ही बीमारी का निवारण माना जाता है, जबकि ऐलोपैथी इलाज इससे बिलकुल विपरित है. इसमें अगर किसी व्यक्ति को बुखार है तो उसे ऐसी दवाई दी जाएगी, जिसे बुखार कम होता है. कहने का मतलब ये है कि होमोपैथिक चिकित्सक सैमुअल हानीमहन ने ऐलोपैथी शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि ये पद्धति होमोपैथी चिकित्सा से अलग थी और विपरित थी. लेकिन समय के साथ ऐलोपैथी शब्द आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को परिभाषित करने के लिए भी इस्तेमाल होने लगा. आज मॉर्डन मेडिकल साइंस को ही ऐलोपैथी कहा जाता है जबकि कई डॉक्टर्स इससे सहमति नहीं हैं. 

डॉक्टर्स और वैज्ञानिक मानते हैं कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति को एविडेंस बेस्ड मेडिसिन (Evidence Based Medicine) कहा जाना चाहिए. इसके पीछे उनका तर्क ये है कि इस पद्धति में किसी भी दवाइ या इलाज के तरीके को लंगे परीक्षण से गुजरना होता है. अगर परीक्षण सफल रहता तो ही उस दवाई या इलाज के इस्तेमाल की अनुमति मिलती है. ये पूरी पद्धति वैज्ञानिक शोध पर आधारित है. इलाज की इस आधुनिक चिकित्सा पद्धति को 2400 वर्ष पुराना माना जाता है. 400 ईसा पूर्व ग्रीस के एथेंस शहर में रहने वाले हिप्पोक्रेट्स को आधुनिक चिकित्सा का जनक कहा गया है. वो ग्रीक के महान चिकित्सक थे. लेकिन इलाज की प्राचीन पद्धतियों में से एक आयुर्वेद की शुरुआत 3 से चार हजार वर्ष पुरानी मानी जाती है.

वेदों में मिलता है आयुर्वेदिक पद्धति का इलाज

आयुर्वेद संस्कृत भाषा के दो शब्द आयुर और वेद से बना है. आयुर का अर्थ होता है जीवन और वेद का अर्थ होता है विज्ञान. यानी आयुर्वेद जीवन के विज्ञान को परिभाषित करता है. अर्थवेद में 114 श्लोक ऐसे हैं, जो आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज का जिक्र करते हैं. अर्थवेद में कई प्रमुख बीमारियों के बारे में बताया गया है. जैसे बुखार, खांसी, पेट दर्द, डायरिया और स्कीन की बीमारियां. इन बीमारियों का इलाज कैसे करना है, इसके बारे में अर्थवेद में उल्लेख मिलता है. इसके अलावा ऋग्वेद में भी 67 औषधियों का उल्लेख मिलता हैं. यजुर्वेद में 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है. और सामवेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित कुछ मंत्रों का वर्णन प्राप्त होता है.

आयुर्वेद के 2000 साल बाद हुई ऐलोपैथी की उत्पत्ति

यानी हमारे वेदों में आयुर्वेद का उल्लेख है और ये इलाज की प्रचानी पद्धति है. ऐसा भी कहा जाता है कि एलोपैथिक इलाज की उत्पत्ति आयुर्वेद के 2 हजार वर्षों के बाद हुई. आयुर्वेद ने हमें कई महत्वपूर्ण ग्रंथ भी दिए. असल में वेदों में आयुर्वेद का जो उल्लेख मिला, उसे आने वाली सदियों में दो भागों में बांटा गया. पहला था धन्वंतरि संप्रदाय- इससे संबंधित जानकारी हमें चरक संहिता में मिलती है, जिसमें अलग अलग बीमारियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. ये प्रसिद्ध आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक ने लिखा था. चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं. वो कुषाण राज्य के राजवैद्य थ.

8 भागों में बांटा गया आयुर्वेद, इसे समझना जरूरी

दूसरा सम्प्रदाय है, आत्रेय सम्प्रदाय, इससे संबंधित जानकारी सुश्रुत संहिता में मिलती है. जिसमें 100 से अधिक अलग-अलग तरह की सर्जरी और 650 से ज्यादा दवाइयों का जिक्र किया गया. सुश्रुत भी प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री और शल्य चिकित्सक थे. वो आयुर्वेद के महान ग्रन्थ सुश्रुत संहिता के प्रणेता भी हैं. उन्हें शल्य चिकित्सा का जनक भी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि उन्होंने ही आज से लगभग ढाई हजार साल पहले प्लास्टिक सर्जरी की थी. इसके अलावा ब्रह्मा जी ने आयुर्वेद को 8 भागों में बांटा था, और उन भागों को उन्होने तंत्र का नाम दिया. ये सारे भाग अलग-अलग चिकित्सा के उपक्रम को समझाते हैं.

1. शल्य तन्त्र : इसको अंग्रेजी में सर्जरी कहते हैं.
2. शालाक्य तन्त्र : इसे अंग्रेजी में ENT विभाग कहते है. यानी इसमें मुंह, नाक, आंख और कान के अंगों में जो रोग होता है, उससे संबंधित निवारण के बारे में लिखा हुआ है.
3. काय चिकित्सा : इसको जनरल मेडिसिन कहते है. इसमें बुखार, खांसी और जुकाम जैसी बीमारियां आती हैं.
4. भूत विद्या तन्त्र : इसमें ग्रह दशा से संबंधित चिकित्सा के बारे में लिखा हुआ है.
5. कुमार भृत्यु : इसमें बच्चों, स्त्रियों और स्त्री रोग से संबंधित रोग का उल्लेख मिलता है.
6. अगदत तन्त्र : इसको अंग्रेजी में टॉक्सिकोलॉजी कहते हैं. इसमें जहर के बारे में ज्ञान दिया गया है.
7. रसायन तन्त्र : इसमें बुढ़ापे में बल, पौरुष और दीर्घायु बनने के बारे में लिखा गया है.
8. वाजीकरण : इसमें शरीर के गुप्त रोग का उल्लेख मिलता है.

आयुर्वेद vs ऐलोपैथी की असली वजह क्या है?

कहने का मतलब ये है कि ऐलोपैथी जहां इलाज की आधुनिक पद्धति है, वहीं आयुर्वेद इलाज की प्राचीन पद्धति है. लेकिन फिर भी इन दोनों में टकराव है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि आयुर्वेद को धर्म से जोड़कर देखा जाता है. 18वीं सदी में जब ऐलोपैथी का भारत में विस्तार हुआ, तब अंग्रेज इस पद्धति को रहस्यभरी नजरों से देखते थे. उस समय हमारे देश के जो लोग आयुर्वेदिक पद्धति से इलाज कराते थे, उन्हें अंधविश्वासी कहा जाता था. अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि भारत में ऐलोपैथी का विस्तार आसान नहीं होगा. जब भारत में चेचक की बीमारी फैली, तब तक इसका इलाज भी आयुर्वेदिक पद्धति से भारत में होता था. लेकिन फिर वर्ष 1796 में चेचक की वैक्सीन विकसित कर ली गई, और अंग्रेजों ने इस वैक्सीन का इस्तेमाल भारत में शुरू कर दिया. चेचक के इस टीके से लोगों की जान बची तो ऐलोपैथी में लोगों का विश्वास बढ़ा. यही वो समय था जब लोग आयुर्वेद की जड़ी बूटियों को छोड़कर ऐलोपैथी की कड़वी दवाइयों की तरफ रुख करने लगे.

इस तरह ऐलोपैथी ने आयुर्वेद को किया ओवरटैक

एलोपैथिक तरीके से इलाज कराने के लिए अंग्रेजों ने भारत में बड़े स्तर पर अभियान चलाया. कहा जाता है कि तब आचार्य और वैद्यों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन अंग्रेजों ने इस विरोध को दबा दिया. वर्ष 1785 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल, मद्रास और बॉम्बे प्रेजिडेंसी में मेडिकल विभाग का गठन किया. फिर वर्ष 1869 में इन तीनों मेडिकल विभागों को मिला कर इंडियन मेडिकल सर्विस की स्थापना की गई, जिसका उद्देश्य था इलाज के पश्चिमी तौर तरीकों को भारत में प्रोत्साहित करना और लोगों में इसके प्रति जागरुकता बढ़ाना. पश्चिमी भारत के तटीय इलाकों में पुर्तगालियों का लम्बे समय तक शासन रहा.

वर्ष 1860 तक गोवा पुर्तगाल के ही अधीन था. उस दौरान वर्ष 1840 में पुतर्गालियों ने गोवा मेडिकल कॉलेज की स्थापना की थी. इससे ठीक पांच साल पहले अंग्रेजों ने भी ऐसा ही एक मेडिकल कॉलेज मद्रास में 1835 में बनाया था. इन संस्थानों में लोगों को मॉडर्न मेडिकल साइंस के बारे में पढ़ाया जाता था. ये उस दौर की बात है, जब भारत में बड़े बड़े अस्पताल नहीं होते थे और देश की अधिकतर आबादी अनपढ़ और गांवों में रहने वाली थी. तब लोग बाहर से पढ़ कर आए विदेशी डॉक्टरों से ज्यादा अपने वैद्य या हकीम पर ही भरोसा करते थे. लेकिन अंग्रेजों ने भारत में ऐलोपैथी का हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर (Health Infrastructure) खड़ा किया और लोग डॉक्टरों के पास इलाज के लिए जाने लगे.

190 वर्षों के अंग्रजों के शासन में उपचार की ये पद्धति काफी लोकप्रिय हो गई और इस दौरान अंग्रेजों ने भारत के कई शहरों में अस्पताल भी बनवाए. इससे पहले ये अस्पताल नहीं थे और भारत में डॉक्टर भी नहीं होते थे. भारत में वैद्य और हकीम होते थे. ऐसा नहीं है कि ऐलोपैथी को लोगों पर थोप दिया गया था. बल्कि इलाज की इस पद्धति ने लोगों की जान बचाई और इसीलिए हमारा इस पर भरोसा बढ़ा. वर्ष 1910 के बाद भारत में जो बच्चे पढ़ लिख जाते थे, उनका पहला सपना डॉक्टर बनने का ही होता था. हालांकि तब भी डॉक्टर बनने की पढ़ाई करना आसान नहीं था. लेकिन अंग्रेजों ने मेडिकल कॉलेज बनाए और इसका विस्तार किया.

आज लोग डॉक्टर बनना चाहते हैं, आयुर्वेद चिकित्सक नहीं

आजादी के बाद भी ये सिलसिला चलता रहा और एलोपैथिक इलाज की पद्धति हर वर्ष लाखों जान बचाली चली गई. आज पूरे देश में कुल 69 हजार सरकारी और प्राइवेट अस्पताल हैं. जबकि आयुष अस्पतालों की संख्या 3600 है. इनमें आयुर्वेदिक अस्पताल 2 हजार 827 हैं, यूनानी अस्पताल 252 है, सिद्ध चिकित्सा पद्धति के 264 अस्पताल हैं और होमोपैथिक के 216 अस्पताल हैं. इन आंकड़ों में एक सच ये भी छिपा है कि आज लोग डॉक्टर तो बनना चाहते हैं लेकिन आयुर्वेद के चिकित्सक नहीं बनना चाहते. इसे आप कुछ आंकड़ों से समझ सकते हैं.

ऐलोपैथी बाजार आयुर्वेद से कई गुना बड़ा है

इस समय देश में 562 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें MBBS की 85 हजार सीटें हैं. इनमें 286 सरकारी और 276 प्राइवेट मेडिकल कॉलेज हैं. अगर बात आयुर्वेदिक मेडिकल संस्थानों की करें तो देश में इस समय लगभग 250 आयुर्वेदिक संस्थान हैं, जिनमें लगभग 10 हजार अंडर ग्रैजुएट और 12 हजार पोस्ट ग्रेजुएट सीट हैं. इसी से आप ऐलोपैथी और आयुर्वेद के बीच के अंतर को समझ सकते हैं. इसके अलावा ऐलोपैथी का बाजार भी बहुत बड़ा है. इस समय पूरी दुनिया में फार्मास्यूटिकल कंपनियों का सालाना टर्नओवर 1.3 ट्रिलियन डॉलर यानी 97 लाख करोड़ रुपये है. अगर सिर्फ भारत की बात करें तो भारत में फार्मास्यूटिकल कंपनियों का सालाना टर्नओवर 41 बिलियन डॉलर यानी 3 लाख करोड़ रुपये है.

कोरोना महामारी से आयुर्वेद पद्धति को मिला बूस्ट

हालांकि आयुर्वेद अधिकांश रूप से हमारे देश में ज्यादा लोकप्रिय है. इसे भी आप कुछ आंकड़ों से समझ सकते हैं. देश में आयुर्वेदिक दवाइयों का सालाना कारोबार 10 हजार करोड़ रुपये का है, जबकि एक हजार करोड़ रुपये की आयुर्वेदिक दवाइयां निर्यात की जाती हैं. यानी दूसरे देशों को भेजी जाती हैं. अगर सभी आयुर्वेदिक उत्पादों की बात करें तो 2018 में इसका सालाना कोराबार 30 हजार करोड़ रुपये था, जो 2024 तक 71 हजार करोड़ रुपये का हो सकता है. पिछले एक साल में इसमें काफी तेजी आई है, जब से कोरोना वायरस आया है. आपने देखा होगा कि कोरोना वायरस से बचने के लिए लोग काढ़ा पी रहे हैं, हल्दी वाला दूध पी रहे हैं, गिलोय का सेवन कर रहे हैं और अदरक का भी अधिक सेवन कर रहे हैं. असल में ये सभी इलाज की पद्धतियां आयुर्वेद में हैं. आयुर्वेद में इन्हीं जड़ी बूटियों से लोगों को सही किया जाता है. और भी इसके अलावा आयुर्वेद में दवाइयां हैं. लेकिन आयुर्वेद ऐलोपैथी से आज पीछे है. और यही सच है.

ऐलोपैथी दौड़ में आगे क्यों? 

इसे आप इस बात से समझ सकते हैं कि ऐलोपैथी और आयुर्वेद में क्या अंतर हैं? आयुर्वेद शब्द और आयुर्वेद में बताई गई इलाज की पद्धति हजारों वर्षों पुरानी है. जबकि ऐलोपैथी शब्द का चलन वर्ष 1810 से माना जाता है. ऐसा भी कहा जाता है कि यूनानी पद्धति, रोमन पद्धति और अरब की इलाज पद्धति से कुछ बातें ऐलोपैथी में ली गई हैं. यानी आयुर्वेदिक पद्धति सबसे प्राचीन है. लेकिन ऐलोपैथी इस दौड़ में आगे क्यों इसके भी कई कारण हैं. आयुर्वेद में मरीज का इलाज काफी लंबा चलता है, और इसमें समय भी काफी अधिक लगता है. लेकिन ऐलोपैथी में ऐसा नहीं होता. इसमें तुरंत राहत देने वाली दवाइयां मरीज को दी जाती हैं और इलाज किया जाता है. यानी ये ऐलोपैथी की ताकत है.

ऐलोपैथी की सबसे बड़ी ताकत उसकी कमजोरी भी

ऐलोपैथी में बीमारी के लक्षण को ट्रीट किया जाता है. जबकि आयुर्वेद में समय ज्यादा लगता है, लेकिन इसमें बीमारी को जड़ से खत्म करने का दावा किया जाता है. ये पद्धति इसी पर आधारित है. आयुर्वेद की दवाइयों के साइड इफेक्ट नहीं होते, लेकिन ऐलोपैथी में लगभग सभी दवाइयों के साइड इफेक्ट होते हैं. इसका उदाहरण हम कोरोना वायरस में भी देख सकते हैं. जैसे मरीजों ने बिना डॉक्टरी सलाह के अधिक स्टीरोइड लिए और उन्हें ब्लैक फंगस हो गया. इसी तरह ऑक्सीजन के गलत इस्तेमाल से भी कई लोगों पर साइड इफेक्ट्स हुए. यानी ये इसकी कमजोरी है.

आयुर्वेद में दवाइयां मरीज को उसके वजन, उम्र और शरीर की प्रति रोधक क्षमता के मुताबिक दी जाती हैं, लेकिन ऐलोपैथी में ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता. इसके अलावा आयुर्वेदिक इलाज ज्यादा खर्चीला नहीं है, जबकि एलोपैथिक इलाज काफी खर्चीला है. लेकिन गंभीर मामलों में एलोपैथिक पद्धति ही कारगर है. जब मरीज के पास समय कम होता है तो आयुर्वेद में ऐसी दवाइयां नहीं हैं जो तुरंत असर करती हैं. यही कारण है कि एलोपैथिक इलाज पर हम यकीन करते हैं बल्कि इसने करोड़ों लोगों की जान बचाई है.

ऐलोपैथी से पहले भारत में मौजूद थीं 6 पद्धतियां

चेचक, पोलिया, मलेरिया, रोटा वायरस, पीलिया और टेटनस जैसी गंभीर बीमारियों में एलोपैथिक इलाज काफी कारगर रहा और करोड़ों लोगों की जान बची. आज भी कोरोना वायरस के इलाज में एलोपैथिक ही बड़ा हथियार है. लेकिन इसका मतलब ये है कि आयुर्वेद का कोई महत्व नहीं है. ऐलोपैथी के आने से पहले भारत में इलाज की 6 पद्धति मौजूद थीं. 

1. आयुर्वेद
2. योग
3. सिद्ध चिकित्सा पद्धति
4. यूनानी पद्धति
5. होमोपैथी
6. नेचुरोपैथी

इन सब पद्धतियों को इस्टर्न मेडिसिन यानी पूर्व देशों से आई इलाज की पद्धति या वैकल्पिक दवाएं (Alternate Medicines) कहा जाता है. पिछले 100 वर्षों में ऐलोपैथी इलाज की दूसरी पद्धतियों पर हावी है. पहले दुनिया में चीन और जापान की अपनी इलाज की पद्धति भी काफी लोकप्रिय थी. लेकिन अब इसका ही प्रभाव है. आज जब देश में ये चर्चा हो रही है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति सही है या आयुर्वेदिक पद्धति सही है, तब हमें ये ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों ही पद्धति का अपना महत्व और अपना स्थान है. आधुनिक युग में इन दोनों ही पद्धतियों की हमें जरूरत है.

ऐलोपैथी और आयुर्वेद ने बचाई करोड़ों लोगों की जान

जहां एलोपैथिक इलाज ने अब तक पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों की जान बचाई है, वहीं योग और आयुर्वेदिक इलाज ने भी लोगों को स्वस्थ शरीर और निरोगी रहने का अर्थ बताया है. आयुर्वेद की मदद से कई लोग तनाव, ब्लड प्रेशर और अस्थमा से ठीक होने का दावा करते हैं. और ऐलोपैथी में भी इस पर अध्ययन किया गया है. आज हमने इस पर आपके लिए एक रिपोर्ट तैयार की है, जो आपको इसी के बारे में बताएगी. आज हम आपसे यही कहना चाहेंगे कि ना इलाज की ऐलोपैथी पद्धति में कोई कमी है या आयुर्वेद में. कड़वी सच्चाई तो ये है कि इन पद्धति पर टकराव मनुष्य के हितों के बीच होता है. आपको यही बात याद रखनी है कि हर पद्धति का अपना महत्व होता है. इस महत्व में जो मुनाफा देखते हैं, वो लोग आपको गुमराह करते हैं.

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